हे उद्धव, क्या युयुधान कुशल से? उसने अर्जुन से सैन्य कला की जटिलताएँ सीखीं और उस दिव्य गन्तव्य को प्राप्त किया जिस तक बड़े-बड़े संन्यासी भी बहुत कठिनाई से पहुँच पाते हैं।
तात्पर्य
अध्यात्म का गन्तव्य है भगवान् अधोक्षज का, जो इन्द्रियों की पहुँच के परे हैं, पार्षद बन जाना। ब्रह्मसुख का आनन्द प्राप्त करने के लिए संन्यासी लोग समस्त सांसारिक सम्बन्धों को, यथा परिवार, पत्नी, सन्तान, मित्र, घर, सम्पत्ति, को त्याग देते हैं। किन्तु अधोक्षज सुख ब्रह्मसुख से बढक़र है। ज्ञानीजन परब्रह्म के विषय में दार्शनिक चिन्तन करते हुए आनन्द के दिव्य गुण का भोग करते हैं, किन्तु इस आनन्द के परे वह सुख है, जिसका भोग भगवान् का नित्य स्वरूप ब्रह्म करता है। जीवों द्वारा ब्रह्मानन्द का भोग भवबन्धन से मोक्ष पाने के बाद ही हो पाता है। किन्तु परब्रह्म अपनी ही शक्ति का, जिसे ह्लादिनी शक्ति कहते हैं, नित्य आनन्द भोग करता है। ज्ञानी, जो कि बाह्य गुणों के निषेध द्वारा ब्रह्म का अध्ययन करता है, ब्रह्म की ह्लादिनी शक्ति को नहीं समझ पाता। सर्वशक्तिमान की अनेक शक्तियों में उनकी अन्तरंगा शक्ति के तीन रूप हैं—ये हैं संवित, सन्धिनी तथा ह्लादिनी। महान् योगी तथा ज्ञानीजन यम, नियम, आसन, ध्यान, धारणा तथा प्राणायाम के नियमों का दृढ़ता से पालन करने पर भी भगवान् की अन्तरंगा शक्ति में प्रवेश नहीं कर पाते। किन्तु भगवद्भक्तों को भक्ति के बल पर इस अन्तरंगा शक्ति की अनुभूति सहज ही हो जाती है। युयुधान जीवन की इस अवस्था को उसी तरह प्राप्त कर चुका था जिस तरह उसने अर्जुन से सैन्यविज्ञान का पटु ज्ञान प्राप्त किया था। इस तरह उसका जीवन भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से सर्वथा सफल था। भगवान् की भक्ति का यही मार्ग है।
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