श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 1: विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.1.4 
न ह्यल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्यामलात्मन: ।
तस्मिन् वरीयसि प्रश्न: साधुवादोपबृंहित: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
न—कभी नहीं; हि—निश्चय ही; अल्प-अर्थ—लघु (महत्त्वहीन) कार्य; उदय:—उठाया; तस्य—उसका; विदुरस्य—विदुर का; अमल-आत्मन:—सन्त पुरुष का; तस्मिन्—उसमें; वरीयसि—अत्यन्त सार्थक; प्रश्न:—प्रश्न; साधु-वाद—सन्तों तथा ऋषियों द्वारा अनुमोदित वस्तुएँ; उपबृंहित:—से पूर्ण ।.
 
अनुवाद
 
 सन्त विदुर भगवान् के महान् एवं शुद्ध भक्त थे, अतएव कृपालु ऋषि मैत्रेय से पूछे गये उनके प्रश्न अत्यन्त सार्थक, उच्चस्तरीय तथा विद्वन्मण्डली द्वारा अनुमोदित रहे होंगे।
 
तात्पर्य
 विभिन्न श्रेणी के व्यक्तियों के बीच के प्रश्नों तथा उत्तरों का भिन्न-भिन्न महत्त्व होता है। व्यापार-विनिमय में व्यापारी-व्यक्तियों द्वारा किये गये प्रश्नों का आध्यात्मिक महत्त्व नहीं हो सकता। विभिन्न श्रेणी के व्यक्तियों में उठने वाले प्रश्नों तथा उनके उत्तरों का अनुमान सम्बद्ध व्यक्तियों के बौद्धिक स्तर से लगाया जा सकता है। भगवद्गीता में जो विचार-विमर्श हुआ वह श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के बीच हुआ जो क्रमश: परम पुरुष तथा परम भक्त थे। भगवान् ने अर्जुन को अपना भक्त तथा मित्र स्वीकार किया (भगवद्गीता ४.३), अतएव कोई भी विवेकवान व्यक्ति अनुमान लगा सकता है कि यह विचार-विमर्श भक्तियोग के सिद्धान्त पर आधारित था। वास्तव में सम्पूर्ण भगवद्गीता भक्तियोग के सिद्धान्त पर ही आधारित है। कर्म तथा कर्मयोग में अन्तर है। कर्म तो कर्ता द्वारा फल के भोग हेतु नियमित कार्य है, किन्तु कर्मयोग भगवान् की तुष्टि हेतु भक्त द्वारा सम्पन्न किया गया कार्य है। कर्मयोग भक्ति पर अर्थात् भगवान् को प्रसन्न करने पर आश्रित है, जबकि कर्म स्वयं कर्ता की इन्द्रियों को प्रसन्न करने पर आधारित है। श्रीमद्भागवत के अनुसार जब कोई व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान के उच्च स्तर पर प्रश्न पूछना चाहता हो तो उसे प्रामाणिक गुरु के पास जाने की सलाह दी जाती है। उस सामान्य व्यक्ति को, जिसे आध्यात्मिक बातों में कोई रुचि नहीं होती, फैशन के रूप में गुरु के पास जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

महाराज परीक्षित, छात्र के रूप में ईश-विज्ञान समझने के प्रति जिज्ञासु थे और शुकदेव गोस्वामी दिव्य विज्ञान के प्रामाणिक गुरु थे। दोनों ही जानते थे कि विदुर तथा ऋषि मैत्रेय के द्वारा जिन विषयों पर विचार-विमर्श हुआ होगा वे उच्चस्तरीय रहे होंगे, अतएव महाराज परीक्षित को अपने गुरु से यह जानने के लिए अतीव उत्कण्ठा थी।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥