हे स्वामी, क्या पृथा अब भी जीवित है? वह अपने पितृविहीन बालकों के निमित्त ही जीवित रही अन्यथा राजा पाण्डु के बिना उसका जीवित रह पाना असम्भव था, जो कि महानतम सेनानायक थे और जिन्होंने अकेले ही अपने दूसरे धनुष के बल पर चारों दिशाएँ जीत ली थीं।
तात्पर्य
एक पतिव्रता पत्नी अपने स्वामी अर्थात् पति के बिना जीवित नहीं रह सकती, इसीलिए समस्त विधवाएँ स्वेच्छा से उस प्रज्ज्वलित अग्नि को गले लगाती थीं जो मृत पति को भस्म कर देती थी। भारत में यह अत्यन्त सामान्य प्रथा थी, क्योंकि सारी पत्नियाँ सती तथा पतिव्रता होती थीं। बाद में, कलियुग के आगमन के साथ ही पत्नियों का पतिपरायण होना कम होता गया और विधवाओं द्वारा स्वेच्छा से अग्निदाह अब अतीत की बात हो गई है। अभी थोड़े ही वर्षों पूर्व यह प्रथा समाप्त कर दी गई, क्योंकि स्वेच्छिक प्रथा ने बलात् सामाजिक प्रथा का रूप धारण कर लिया था। जब महाराज पाण्डु मरे तो उनकी दोनों ही पत्नियाँ, माद्री तथा कुन्ती, अग्निदाह के लिए तैयार थीं, किन्तु माद्री ने कुन्ती से अनुरोध किया कि वे पाँच पाण्डवों के, जो छोटे बच्चे ही थे, निमित्त जीवित रहें। जब व्यासदेव ने भी यही आग्रह किया, तो कुन्ती ने ऐसा करना स्वीकार कर लिया। अतिशय विछोह के बावजूद कुन्ती ने अपने पति की अनुपस्थिति में जीवन का भोग करने के लिए नहीं, अपितु बच्चों को संरक्षण प्रदान करने के लिए जीवित रहने का निश्चय किया। विदुर इसी घटना का प्रसंग दे रहे हैं, क्योंकि वे अपनी भावज कुन्तीदेवी के विषय में सारी बातें जानते थे। यह ज्ञात होता है कि महाराज पाण्डु महान् योद्धा थे और उन्होंने धनुषबाण की सहायता से अकेले ही विश्व की चारों दिशाओं को जीता था। ऐसे पति की अनुपस्थिति में कुन्ती के लिए विधवा के रूप में भी जीवित रहना असम्भव था, तो भी पाँच पुत्रों के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा।
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