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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 1: विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  3.1.45 
तस्य प्रपन्नाखिललोकपाना-
मवस्थितानामनुशासने स्वे ।
अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्य
वार्तां सखे कीर्तय तीर्थकीर्ते: ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
तस्य—उसका; प्रपन्न—शरणागत; अखिल-लोक-पानाम्—सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सारे शासकों के; अवस्थितानाम्—स्थित; अनुशासने—नियंत्रण में; स्वे—अपने; अर्थाय—स्वार्थ हेतु; जातस्य—उत्पन्न होने वाले का; यदुषु—यदु कुल में; अजस्य— अजन्मा की; वार्ताम्—कथाएँ; सखे—हे मित्र; कीर्तय—कहो; तीर्थ-कीर्ते:—तीर्थस्थानों में जिन के यश का कीर्तन होता है, उन भगवान् का ।.
 
अनुवाद
 
 अतएव हे मित्र, उन भगवान् की महिमा का कीर्तन करो जो तीर्थस्थानों में महिमामंडित किये जाने के निमित्त हैं। वे अजन्मा हैं फिर भी ब्रह्माण्ड के सभी भागों के शरणागत शासकों पर अपनी अहैतुकी कृपा द्वारा वे प्रकट होते हैं। उन्हीं के हितार्थ वे अपने शुद्ध भक्त यदुओं के परिवार में प्रकट हुए।
 
तात्पर्य
 ब्रह्माण्ड भर में नाना प्रकार के लोकों में असंख्य शासक हैं—सूर्यलोक में सूर्यदेव, चन्द्रलोक में चन्द्रदेव, स्वर्गलोक में इन्द्र, वायु, वरुण, तथा ब्रह्मलोक में देवता जिसमें ब्रह्माजी निवास करते हैं। ये सभी भगवान् के आज्ञाकारी सेवक हैं; जब भी विभिन्न ब्रह्माण्डों के असंख्य लोकों के प्रशासन में कोई विपत्ति आती है, तो उनके शासक भगवान् से प्रकट होने के लिए प्रार्थना करते हैं और वे प्रकट होते हैं। इसकी पुष्टि भागवत (१.३.२८) में निम्नलिखित श्लोक में पहले ही हुई है— एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।

इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥

हर युग में, जब भी आज्ञाकारी शासकों पर कोई विपत्ति आती है, तो भगवान् प्रकट होते हैं। वे अपने शुद्ध अनन्य भक्तों के लिए भी प्रकट होते हैं। शरणागत शासक तथा शुद्ध भक्तगण सदैव भगवान् के कठोर नियंत्रण में रहते हैं और वे कभी भी भगवान् की इच्छाओं का उल्लंघन नहीं करते। इसीलिए भगवान् सदैव उनका ध्यान रखते हैं।

तीर्थाटन का उद्देश्य भगवान् का निरन्तर स्मरण करना है इसीलिए भगवान् तीर्थकीर्ति कहलाते हैं। तीर्थस्थान की यात्रा करने का उद्देश्य भगवान् की महिमा के गायन का अवसर प्राप्त करना है। आज भी, यद्यपि समय बदल चुका है, फिर भी भारत में तीर्थयात्रा के अनेक स्थल हैं। उदाहरणार्थ, मथुरा तथा वृन्दावन में, जहाँ हमें ठहरने का अवसर प्राप्त हुआ है, लोग प्रात: काल चार बजे से जग कर रात होने तक किसी न किसी रूप में भगवान् की महिमा के गायन में लगे रहते हैं। ऐसे तीर्थस्थान की शोभा यह है कि मनुष्य को स्वत: भगवान् की पवित्र महिमा का स्मरण हो आता है। उनका नाम, यश, गुण, रूप, लीलाएँ तथा साज-सामग्री भगवान् से अभिन्न हैं, अतएव भगवान् की महिमा के कीर्तन से भगवान् की साकारता का आवाहन होता है। किसी भी समय या कहीं भी शुद्ध भक्त-गण मिल कर भगवान् की महिमा का कीर्तन करते हैं, तो निस्सन्देह भगवान् आकर उपस्थित होते हैं। भगवान् ने स्वयं कहा है कि जहाँ उनके शुद्ध भक्त उनकी महिमाओं का गायन करते हैं वहाँ वे सदैव निवास करते हैं।

 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न” नामक प्रथम अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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