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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 1: विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  3.1.6 
श्रीशुक उवाच
यदा तु राजा स्वसुतानसाधून्
पुष्णन्नधर्मेण विनष्टद‍ृष्टि: ।
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून्
प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; यदा—जब; तु—लेकिन; राजा—राजा धृतराष्ट्र; स्व-सुतान्—अपने पुत्रों को; असाधून्—बेईमान; पुष्णन्—पोषण करते हुए; —कभी नहीं; धर्मेण—उचित मार्ग पर; विनष्ट-दृष्टि:—जिसकी अन्त:दृष्टि खो चुकी है; भ्रातु:—अपने भाई के; यविष्ठस्य—छोटे, सुतान्; सुतान्—पुत्रों को; विबन्धून्—अनाथ; प्रवेश्य—प्रवेश करा कर; लाक्षा—लाख के; भवने—घर में; ददाह—आग लगा दी ।.
 
अनुवाद
 
 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : राजा धृतराष्ट्र अपने बेईमान पुत्रों का पालन-पोषण करने की अपवित्र इच्छाओं के वश में होकर अन्तर्दृष्टि खो चुका था और उसने अपने पितृविहीन भतीजों, पाण्डवों को जला डालने के लिए लाक्षागृह में आग लगा दी।
 
तात्पर्य
 धृतराष्ट्र जन्मान्ध था, किन्तु अपने बेईमान पुत्रों के समर्थन हेतु अपवित्र कार्य करने में उसका अन्धापन, दृष्टि के शारीरिक दोष से कहीं बड़ा था। दृष्टि की शारीरिक कमी से किसी की आध्यात्मिक प्रगति नहीं रुकती। किन्तु जब कोई कायिक रूप से स्वस्थ होते हुए भी आध्यात्मिक रूप से अन्धा होता है, तो वह अन्धापन मनुष्य जीवन के उन्नति-मार्ग में भयावह रूप से बाधक होता है।
 
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