श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 1: विदुर द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  3.1.8 
द्यूते त्वधर्मेण जितस्य साधो:
सत्यावलम्बस्य वनं गतस्य ।
न याचतोऽदात्समयेन दायं
तमोजुषाणो यदजातशत्रो: ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
द्यूते—जुआ खेलकर; तु—लेकिन; अधर्मेण—कुचाल से; जितस्य—पराजित; साधो:—सन्त पुरुष का; सत्य-अवलम्बस्य— जिसने सत्य को शरण बना लिया है; वनम्—जंगल; गतस्य—जाने वाले का; न—कभी नहीं; याचत:—माँगे जाने पर; अदात्—दिया; समयेन—समय आने पर; दायम्—उचित भाग; तम:-जुषाण:—मोह से अभिभूत; यत्—जितना; अजात शत्रो:—जिसके कोई शत्रु न हो, उसका ।.
 
अनुवाद
 
 युधिष्ठिर, जो कि अजातशत्रु हैं, जुए में छलपूर्वक हरा दिये गये। किन्तु सत्य का व्रत लेने के कारण वे जंगल चले गये। समय पूरा होने पर जब वे वापस आये और जब उन्होंने साम्राज्य का अपना उचित भाग वापस करने की याचना की तो मोहग्रस्त धृतराष्ट्र ने देने से इनकार कर दिया।
 
तात्पर्य
 महाराज युधिष्ठिर अपने पिता के साम्राज्य के सही अधिकारी थे। किन्तु दुर्योधन इत्यादि अपने पुत्रों का पक्षपात करने के लिए महाराज युधिष्ठिर के ताऊ धृतराष्ट्र ने अपने भतीजों को उनके राज्याधिकार से वंचित करने के लिए अनेक छलपूर्ण युक्तियों का सहारा लिया। अन्त में पाण्डवों ने पाँचों भाइयों के लिए केवल पाँच गाँव माँगे, किन्तु अनधिकृत वंचको ने उससे भी इनकार कर दिया। इस घटना के फलस्वरूप कुरुक्षेत्र का युद्ध हुआ। अत: कुरुक्षेत्र का युद्ध पाण्डवों द्वारा नहीं, अपितु कौरवों द्वारा उकसाया गया था।

क्षत्रियों के रूप में पाण्डवों की सही जीविका तो एकमात्र शासन करना था, न कि कोई अन्य कार्य स्वीकार करना। एक ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य किसी भी परिस्थिति में अपनी जीविका के लिए नौकरी स्वीकार नहीं करेगा।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥