अर्जुन ने श्रीकृष्ण को जगद्गुरु के रूप में (धृतराष्ट्र की) सभा में भेजा था और यद्यपि उनके शब्द कुछेक व्यक्तियों (यथा भीष्म) द्वारा शुद्ध अमृत के रूप में सुने गये थे, किन्तु जो लोग पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों के लेशमात्र से भी वंचित थे उन्हें वे वैसे नहीं लगे। राजा (धृतराष्ट्र या दुर्योधन) ने कृष्ण के शब्दों को गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया।
तात्पर्य
जगद्गुरु भगवान् कृष्ण ने दूतकार्य स्वीकार किया और अर्जुन द्वारा नियुक्त होकर वे शान्ति-मिशन में राजा धृतराष्ट्र की सभा में गये। कृष्ण सबों के स्वामी हैं फिर भी अर्जुन के दिव्य सखा होने के कारण उन्होंने यह दूत-कर्म प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया मानो वे कोई सामान्य मित्र हों। अपने शुद्ध भक्तों के साथ भगवान् के बर्ताव का यही अनूठापन है। उन्होंने सभा में जाकर शान्ति के विषय में बातें कीं। इस सन्देश का आस्वाद भीष्म तथा अन्य प्रमुख जनों ने किया, क्योंकि यह सन्देश स्वयं भगवान् के मुख से निकला था। किन्तु पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों के क्षीण होने से दुर्योधन अथवा उसके पिता धृतराष्ट्र ने इस सन्देश को गम्भीरता से नहीं लिया। जिन व्यक्तियों के पुण्य क्षीण हो जाते हैं, वे ऐसा ही करते हैं। कोई व्यक्ति अपने विगत पुण्यकर्मों के बल पर देश का राजा बन सकता है, किन्तु दुर्योधन तथा उसकी टोली के पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो चुके थे, अतएव उनके कार्यों से स्पष्ट हो गया था कि वे पाण्डवों के पक्ष में अपना राज्य खोने वाले थे। ईश्वर का सन्देश भक्तों के लिए तो सदैव अमृततुल्य होता है, किन्तु अभक्तों के लिए यह बिल्कुल उल्टा होता है। मिश्री स्वस्थ व्यक्ति को सदैव मीठी लगती है, किन्तु पीलिया रोग से पीडि़त व्यक्ति को यह अत्यन्त तीखी लगती है।
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