श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 10: सृष्टि के विभाग  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  3.10.11 
मैत्रेय उवाच
गुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोऽप्रतिष्ठित: ।
पुरुषस्तदुपादानमात्मानं लीलयासृजत् ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; गुण-व्यतिकर—प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रियाओं का; आकार:—स्रोत; निर्विशेष:— विविधता रहित; अप्रतिष्ठित:—असीम; पुरुष:—परम पुरुष का; तत्—वह; उपादानम्—निमित्त; आत्मानम्—भौतिक सृष्टि; लीलया—लीलाओं द्वारा; असृजत्—उत्पन्न किया ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय ने कहा : नित्यकाल ही प्रकृति के तीनों गुणों की अन्योन्य क्रियाओं का आदि स्रोत है। यह अपरिवर्तनशील तथा सीमारहित है और भौतिक सृजन की लीलाओं में यह भगवान् के निमित्त रूप में कार्य करता है।
 
तात्पर्य
 निर्विशेष काल तत्त्व भगवान् के उपादान (निमित्त) के रूप में भौतिक जगत की पृष्ठभूमि है। यह भौतिक प्रकृति को प्रदत्त की गई सहायता का घटक है। कोई भी नहीं जानता कि काल कब प्रारम्भ हुआ और इसका कब अन्त होता है। काल तत्त्व ही भौतिक जगत के सृजन, पालन तथा संहार का लेखा-जोखा रख सकता है। यह काल तत्त्व सृष्टि का भौतिक कारण है, अतएव भगवान् का स्वांश है। काल भगवान् का निर्विशेष रूप माना जाता है।

आधुनिक लोगों ने भी अनेक प्रकारों से काल तत्त्व की व्याख्या की है। कुछ लोग इसे लगभग उसी रूप में स्वीकार करते हैं जैसाकि श्रीमद्भागवत में बतलाया गया है। उदाहरणार्थ, हिब्रू साहित्य में काल को ईश्वर के स्वरूप में स्वीकार किया गया है। उसमें कहा गया है “ईश्वर ने भूतकाल में पैगम्बरों के द्वारा पिताओं से कभी कभी और अनेक प्रकार से बातें कीं।” तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से काल को परम पूर्ण तथा वास्तविक के रूप में विभेदित किया जाता है। परम पूर्ण काल तो सतत है और भौतिक वस्तुओं की गति या मन्दता से अप्रभावित रहता है। काल की गणना ज्योतिर्विज्ञान तथा गणित के अनुसार गति, परिवर्तन तथा किसी वस्तु विशेष के जीवन के परिपेक्ष्य में की जाती है। किन्तु वस्ततु: काल का वस्तुओं की सापेक्षताओं से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता; प्रत्युत हर वस्तु काल द्वारा प्रदत्त सुविधा के रूप में बनती तथा परिगणित होती है। काल हमारी इन्द्रियों की क्रियाशीलता की मूलभूत माप है, जिसके द्वारा हम भूत, वर्तमान तथा भविष्य की गणना करते हैं। किन्तु वास्तविक गणना में काल का कोई आदि तथा अन्त नहीं होता। पण्डित चाणक्य का कथन है कि काल के अल्पांश को भी करोड़ों डालर मूल्य देकर खरीदा नहीं जा सकता। अतएव बिना लाभ के खोए हुए काल का एक क्षण भी जीवन की सबसे बड़ी हानि है। काल न तो किसी प्रकार के मनोविज्ञान के अधीन है न ही काल के क्षण अपने में वस्तुगत वास्तविकताएँ हैं, किन्तु वे विशेष अनुभवों पर आश्रित हैं।

इसीलिए श्रील जीव गोस्वामी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि काल तत्त्व भगवान् की बहिरंगा शक्ति के कार्य-कारणों से मिलाजुला हुआ है। बहिरंगा शक्ति या भौतिक प्रकृति स्वयम् भगवान् के रूप में काल की अधीक्षता में कार्य करती है, इसीलिए ऐसा लगता है कि भौतिक प्रकृति ने विराट जगत में अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ उत्पन्न की हैं। भगवद्गीता (९.१०) में इस निष्कर्ष की पुष्टि इस प्रकार हुई है—

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥

 
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