श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 10: सृष्टि के विभाग  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  3.10.2 
ये च मे भगवन् पृष्टास्त्वय्यर्था बहुवित्तम ।
तान् वदस्वानुपूर्व्येण छिन्धि न: सर्वसंशयान् ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
ये—वे सभी; च—भी; मे—मेरे द्वारा; भगवन्—हे शक्तिशाली; पृष्टा:—पूछे गये; त्वयि—तुमसे; अर्था:—प्रयोजन; बहु-वित्- तम—हे परम विद्वान; तान्—उन सबों को; वदस्व—कृपा करके वर्णन करें; आनुपूर्व्येण—आदि से अन्त तक; छिन्धि—कृपया समूल नष्ट कीजिये; न:—मेरे; सर्व—समस्त; संशयान्—सन्देहों को ।.
 
अनुवाद
 
 हे महान् विद्वान, कृपा करके मेरे सारे संशयों का निवारण करें और मैंने आपसे जो कुछ जिज्ञासा की है उसे आदि से अन्त तक मुझे बताएँ।
 
तात्पर्य
 विदुर ने मैत्रेय से सारे प्रासंगिक प्रश्न पूछे, क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि मैत्रेय उनकी जिज्ञासाओं के सारे बिन्दुओं का उत्तर देने के लिए उचित व्यक्ति हैं। मनुष्य को अपने शिक्षक की योग्यताओं पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए और विशिष्ट आध्यात्मिक प्रश्नों के लिए किसी अभिज्ञ व्यक्ति के पास नहीं जाना चाहिए। जब शिक्षक से ऐसे प्रश्नों का काल्पनिक उत्तर मिले, तो यह समय का अपव्यय मात्र है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥