श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 10: सृष्टि के विभाग  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.10.21 
तिरश्चामष्टम: सर्ग: सोऽष्टाविंशद्विधो मत: ।
अविदो भूरितमसो घ्राणज्ञा ह्यद्यवेदिन: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
तिरश्चाम्—निम्न पशुओं की जातियाँ; अष्टम:—आठवीं; सर्ग:—सृष्टि; स:—वे हैं; अष्टाविंशत्—अट्ठाईस; विध:—प्रकार; मत:—माने हुए; अविद:—कल के ज्ञान से रहित; भूरि—अत्यधिक; तमस:—अज्ञानी; घ्राण-ज्ञा:—गन्ध से इच्छित वस्तुओं को जानने वाले; हृदि अवेदिन:—हृदय में बहुत कम स्मरण रखने वाले ।.
 
अनुवाद
 
 आठवीं सृष्टि निम्नतर जीवयोनियों की है और उनकी अट्ठाईस विभिन्न जातियाँ हैं। वे सभी अत्यधिक मूर्ख तथा अज्ञानी होती हैं। वे गन्ध से अपनी इच्छित वस्तुएँ जान पाती हैं, किन्तु हृदय में कुछ भी स्मरण रखने में अशक्य होती हैं।
 
तात्पर्य
 वेदों में निम्नतर पशुओं के लक्षणों का वर्णन इस प्रकार हुआ है: अथेतरेषां पशूना: अशनापिपासे एवाभिविज्ञानं न विज्ञातं वदन्ति न विज्ञातं पश्यन्ति न विदु: स्वस्तनं न लोकालोकाविति; यद्वा भूरि-तमसो बहुरुष: घ्राणेनैव जानन्ति हृदयं प्रति स्वप्रियं वस्त्वेव विन्दन्ति भोजनशयनाद्यर्थं गृहणन्ति। “निम्नतर पशुओं को केवल अपनी भूख तथा प्यास का ज्ञान होता है। उन्होंने न तो कोई ज्ञान अर्जित किया होता है, न दृष्टि। उनके व्यवहार में औपचारिकता पर निर्भरता प्रदर्शित नहीं होती। वे अत्यधिक अज्ञानी हैं, वे अपनी इच्छित वस्तुओं को केवल गन्ध से ही जान सकते हैं और ऐसी बुद्धि से इतना ही समझ सकते हैं कि क्या उपयुक्त है और क्या अनुपयुक्त। उनका ज्ञान एकमात्र भोजन करने तथा सोने तक सीमित है।” इसीलिए सर्वाधिक खूँखार निम्नतर पशु, यथा बाघ तक को नियमित रूप से भोजन तथा सोने के लिए आवास का स्थान देकर पाला जा सकता है। एकमात्र सर्प ऐसे हैं, जिन्हें इस तरह से नहीं पाला जा सकता।
 
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