श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 10: सृष्टि के विभाग  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  3.10.26 
अर्वाक्स्रोतस्तु नवम: क्षत्तरेकविधो नृणाम् ।
रजोऽधिका: कर्मपरा दु:खे च सुखमानिन: ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
अर्वाक्—नीचे की ओर; स्रोत:—भोजन की नली; तु—लेकिन; नवम:—नौवीं; क्षत्त:—हे विदुर; एक-विध:—एक जाति; नृणाम्—मनुष्यों की; रज:—रजोगुण; अधिका:—अत्यन्त प्रधान; कर्म-परा:—कर्म में रुचि रखने वाले; दु:खे—दुख में; च— लेकिन; सुख—सुख; मानिन:—सोचने वाले ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्यों की सृष्टि क्रमानुसार नौवीं है। यही केवल एक ही योनि (जाति) ऐसी है और अपना आहार उदर में संचित करते हैं। मानव जाति में रजोगुण की प्रधानता होती है। मनुष्यग दुखीजीवन में भी सदैव व्यस्त रहते हैं, किन्तु वे अपने को सभी प्रकार से सुखी समझते हैं।
 
तात्पर्य
 मनुष्य पशुओं से अधिक कामुक होता है, अत: मनुष्य का यौन जीवन अधिक अनियमित होता है। पशुओं में संभोग का एक नियत काल होता है, किन्तु मनुष्य में ऐसे कार्यों के लिए कोई नियमित समय नहीं है। मनुष्य भौतिक दुखों से छुटकारा पाने के लिए उच्चतर एवं उन्नत स्तर की चेतना प्राप्त हुई होती है, किन्तु अपने अज्ञान के कारण वह यह सोचता है कि उसकी उच्चतर चेतना जीवन की भौतिक सुविधाओं के संवर्धन के निमित्त है। इस तरह उसकी बुद्धि का आध्यात्मिक साक्षात्कार के बजाय पाशविक लालसाओं—खाने, सोने, रक्षा करने तथा संभोग करने—में दुरुपयोग होता है। भौतिक सुविधाओं में अग्रसर होकर मनुष्य अपने को अधिक दुखी अवस्था में ले जाता है, किन्तु भौतिक शक्ति के द्वारा मोहित किये जाने से वह अपने को सदैव सुखी समझता है, भले ही वह कष्ट से क्यों न घिरा हो। मनुष्य जीवन की ऐसी दुखी अवस्था उस प्राकृतिक आरामदेह जीवन से भिन्न है, जिसका भोग पशु तक भी करते हैं।
 
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