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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 10: सृष्टि के विभाग  »  श्लोक 28-29
 
 
श्लोक  3.10.28-29 
देवसर्गश्चाष्टविधो विबुधा: पितरोऽसुरा: ।
गन्धर्वाप्सरस: सिद्धा यक्षरक्षांसि चारणा: ॥ २८ ॥
भूतप्रेतपिशाचाश्च विद्याध्रा: किन्नरादय: ।
दशैते विदुराख्याता: सर्गास्ते विश्वसृक्‍कृता: ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
देव-सर्ग:—देवताओं की सृष्टि; —भी; अष्ट-विध:—आठ प्रकार की; विबुधा:—देवता; पितर:—पूर्वज; असुरा:— असुरगण; गन्धर्व—उच्चलोक के दक्ष कलाकार; अप्सरस:—देवदूत; सिद्धा:—योगशक्तियों में सिद्ध व्यक्ति; यक्ष—सर्वोत्कृष्ट रक्षक; रक्षांसि—राक्षस; चारणा:—देवलोक के गवैये; भूत—जिन्न, भूत; प्रेत—बुरी आत्माएँ, प्रेत; पिशाचा:—अनुगामी भूत; —भी; विद्याध्रा:—विद्याधर नामक दैवी निवासी; किन्नर—अतिमानव; आदय:—इत्यादि; दश एते—ये दस (सृष्टियाँ); विदुर—हे विदुर; आख्याता:—वर्णित; सर्गा:—सृष्टियाँ; ते—तुमसे; विश्व-सृक्—ब्रह्माण्ड के स्रष्टा (ब्रह्मा) द्वारा; कृता:— सम्पन्न ।.
 
अनुवाद
 
 देवताओं की सृष्टि आठ प्रकार की है—(१) देवता (२) पितरगण (३) असुरगण (४) गन्धर्व तथा अप्सराएँ (५) यक्ष तथा राक्षस (६) सिद्ध, चारण तथा विद्याधर (७) भूत, प्रेत तथा पिशाच (८) किन्नर—अतिमानवीय प्राणी, देवलोक के गायक इत्यादि। ये सब ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न हैं।
 
तात्पर्य
 जैसाकि श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध में बताया जा चुका है, सिद्धगण सिद्धलोक के निवासी हैं जहाँ के रहने वाले बिना यान के अन्तरिक्ष में यात्रा करते हैं। वे इच्छामात्र से, बिना कठिनाई के, एक लोक से दूसरे लोक में चले जा सकते हैं। अतएव उच्चतर लोगों के निवासी इस लोक के निवासियों की तुलना में कला, संस्कृति तथा विज्ञान के मामले में कहीं श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उनके मस्तिष्क मनुष्यों के मस्तिष्कों से श्रेष्ठ हैं। इस सन्दर्भ में उल्लिखित भूतप्रेतों की भी गणना देवताओं में की जाती है, क्योंकि वे असामान्य कार्य करने में सक्षम हैं, जो मनुष्यों के लिए सम्भव नहीं हैं।
 
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