अत: परं प्रवक्ष्यामि वंशान्मन्वन्तराणि च ।
एवं रज:प्लुत: स्रष्टा कल्पादिष्वात्मभूर्हरि: ।
सृजत्यमोघसङ्कल्प आत्मैवात्मानमात्मना ॥ ३० ॥
शब्दार्थ
अत:—यहाँ; परम्—बाद में; प्रवक्ष्यामि—बतलाऊँगा; वंशान्—वंशज; मन्वन्तराणि—मनुओं के विभिन्न अवतरण; च—तथा; एवम्—इस प्रकार; रज:-प्लुत:—रजोगुण से संतृप्त; स्रष्टा—निर्माता; कल्प-आदिषु—विभिन्न कल्पों में; आत्म-भू:—स्वयं अवतार; हरि:—भगवान्; सृजति—उत्पन्न करता है; अमोघ—बिना चूक के; सङ्कल्प:—दृढ़निश्चय; आत्मा एव—वे स्वयं; आत्मानम्—स्वयं; आत्मना—अपनी ही शक्ति से ।.
अनुवाद
अब मैं मनुओं के वंशजों का वर्णन करूँगा। स्रष्टा ब्रह्मा जो कि भगवान् के रजोगुणी अवतार हैं भगवान् की शक्ति के बल से प्रत्येक कल्प में अचूक इच्छाओं सहित विश्व प्रपंच की सृष्टि करते हैं।
तात्पर्य
विराट जगत भगवान् की अनेक शक्तियों में से एक का विस्तार है। स्रष्टा तथा सृष्टि दोनों एक ही परम सत्य (परब्रह्म) के उद्भास हैं जैसाकि भागवत के प्रारम्भ में कहा गया है—जन्माद्यस्य यत:।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत ‘सृष्टि के विभाग’ नामक दसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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