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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 10: सृष्टि के विभाग  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.10.4 
मैत्रेय उवाच
विरिञ्चोऽपि तथा चक्रे दिव्यं वर्षशतं तप: ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य यथाह भगवानज: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—महर्षि मैत्रेय ने कहा; विरिञ्च:—ब्रह्मा ने; अपि—भी; तथा—उस तरह से; चक्रे—सम्पन्न किया; दिव्यम्— स्वर्गिक; वर्ष-शतम्—एक सौ वर्ष; तप:—तपस्या; आत्मनि—भगवान् की; आत्मानम्—अपने आप; आवेश्य—संलग्न रह कर; यथा आह—जैसा कहा गया था; भगवान्—भगवान्; अज:—अजन्मा ।.
 
अनुवाद
 
 परम विद्वान मैत्रेय मुनि ने कहा : हे विदुर, इस तरह भगवान् द्वारा दी गई सलाह के अनुसार ब्रह्मा ने एक सौ दिव्य वर्षों तक अपने को तपस्या में संलग्न रखा और अपने को भगवान् की भक्ति में लगाये रखा।
 
तात्पर्य
 ब्रह्मा ने भगवान् नारायण के हेतु अपने आपको संलग्न रखा, इसका यह अर्थ है कि उन्होंने भगवान् की सेवा में अपने को लगाए रखा। यही वह सर्वोच्च तपस्या है, जो कितने ही वर्षों तक की जा सकती है। ऐसी सेवा से कोई कभी निवृत्त नहीं होता, क्योंकि यह शाश्वत तथा सदैव उत्साहवर्धक होती है।
 
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