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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 10: सृष्टि के विभाग  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.10.7 
तद्विलोक्य वियद्व्यापि पुष्करं यदधिष्ठितम् ।
अनेन लोकान् प्राग्लीनान् कल्पितास्मीत्यचिन्तयत् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
तत् विलोक्य—उसे देखकर; वियत्-व्यापि—अतीव विस्तृत; पुष्करम्—कमल; यत्—जो; अधिष्ठितम्—स्थित था; अनेन— इससे; लोकान्—सारे लोक; प्राक्-लीनान्—पहले प्रलय में मग्न; कल्पिता अस्मि—मैं सृजन करूँगा; इति—इस प्रकार; अचिन्तयत्—उसने सोचा ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् उन्होंने देखा कि वह कमल, जिस पर वे आसीन थे, ब्रह्माण्ड भर में फैला हुआ है और उन्होंने विचार किया कि उन समस्त लोकों को किस तरह उत्पन्न किया जाय जो इसके पूर्व उसी कमल में लीन थे।
 
तात्पर्य
 ब्रह्माण्ड के सारे लोकों के बीज उसी कमल में गर्भस्थ थे जिस पर ब्रह्मा आसीन थे। भगवान् ने पहले से सारे लोकों को उत्पन्न कर रखा था और सारे जीव भी ब्रह्मा में जन्म ले चुके थे। भौतिक जगत तथा सारे जीव पहले से ही बीजाणु रूप में भगवान् द्वारा उत्पन्न किये जा चुके थे और ब्रह्मा को इन्हीं बीजों को ब्रह्माण्ड भर में बिखेरना था। इसलिए असली सृष्टि सर्ग कहलाती है और बाद में ब्रह्मा द्वारा जो सृष्टि की गई वह विसर्ग कहलाती है।
 
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