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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 11: परमाणु से काल की गणना  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  3.11.15 
य: सृज्यशक्तिमुरुधोच्छ्‌वसयन् स्वशक्त्या
पुंसोऽभ्रमाय दिवि धावति भूतभेद: ।
कालाख्यया गुणमयं क्रतुभिर्वितन्वं-
स्तस्मै बलिं हरत वत्सरपञ्चकाय ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जो; सृज्य—सृष्टि के; शक्तिम्—बीज; उरुधा—विभिन्न प्रकारों से; उच्छ्वसयन्—शक्ति देते हुए; स्व-शक्त्या—अपनी शक्ति से; पुंस:—जीव का; अभ्रमाय—अंधकार दूर करने के लिए; दिवि—दिन के समय; धावति—चलता है; भूत-भेद:— अन्य समस्त भौतिक रूप से पृथक्; काल-आख्यया—नित्यकाल के नाम से; गुण-मयम्—भौतिक परिणाम; क्रतुभि:—भेंटों के द्वारा; वितन्वन्—विस्तार देते हुए; तस्मै—उसको; बलिम्—उपहार की वस्तुएँ; हरत—अर्पित करे; वत्सर-पञ्चकाय—हर पाँच वर्ष की भेंट ।.
 
अनुवाद
 
 हे विदुर, सूर्य अपनी असीम उष्मा तथा प्रकाश से सारे जीवों को जीवन देता है। वह सारे जीवों की आयु को इसलिए कम करता है कि उन्हें भौतिक अनुरक्ति के मोह से छुड़ाया जा सके। वह स्वर्गलोक तक ऊपर जाने के मार्ग को लम्बा (प्रशस्त) बनाता है। इस तरह वह आकाश में बड़े वेग से गतिशील है, अतएव हर एक को चाहिए कि प्रत्येक पाँच वर्ष में एक बार पूजा की समस्त सामग्री के साथ उसको नमस्कार करे।
 
 
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  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥