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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 11: परमाणु से काल की गणना  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.11.21 
धर्मश्चतुष्पान्मनुजान् कृते समनुवर्तते ।
स एवान्येष्वधर्मेण व्येति पादेन वर्धता ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
धर्म:—धर्म; चतु:-पात्—पूरे चार विस्तार (पाद); मनुजान्—मानव जाति; कृते—सत्ययुग में; समनुवर्तते—ठीक से पालित; स:—वह; एव—निश्चय ही; अन्येषु—अन्यों में; अधर्मेण—अधर्म के प्रभाव से; व्येति—पतन को प्राप्त हुआ; पादेन—एक अंश से; वर्धता—धीरे धीरे वृद्धि करता हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 हे विदुर, सत्ययुग में मानव जाति ने उचित तथा पूर्णरूप से धर्म के सिद्धान्तों का पालन किया, किन्तु अन्य युगों में ज्यों ज्यों अधर्म प्रवेश पाता गया त्यों त्यों धर्म क्रमश: एक एक अंश घटता गया।
 
तात्पर्य
 सत्ययुग में धार्मिक सिद्धान्तों को पूरी तरह सम्पन्न किया जाता था। धीरे धीरे बाद के युगों में धर्म के सिद्धान्त एक एक अंश करके घटते गए। दूसरे शब्दों में, सम्प्रति एक अंश धर्म है और तीन अंश अधर्म। इसलिए इस युग में लोग अधिक सुखी नहीं हैं।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥