श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 11: परमाणु से काल की गणना  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.11.31 
तावत्‍त्रिभुवनं सद्य: कल्पान्तैधितसिन्धव: ।
प्लावयन्त्युत्कटाटोपचण्डवातेरितोर्मय: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
तावत्—तब; त्रि-भुवनम्—तीनों लोक; सद्य:—उसके तुरन्त बाद; कल्प-अन्त—प्रलय के प्रारम्भ में; एधित—उमड़ कर; सिन्धव:—सारे समुद्र; प्लावयन्ति—बाढ़ से जलमग्न हो जाते हैं; उत्कट—भीषण; आटोप—क्षोभ; चण्ड—अंधड़; वात— हवाओं द्वारा; ईरित—बहाई गई; ऊर्मय:—लहरें ।.
 
अनुवाद
 
 प्रलय के प्रारम्भ में सारे समुद्र उमड़ आते हैं और भीषण हवाएँ उग्र रूप से चलती हैं। इस तरह समुद्र की लहरें भयावह बन जाती हैं और देखते ही देखते तीनों लोक जलमग्न हो जाते हैं।
 
तात्पर्य
 कहा जाता है कि संकर्षण के मुख से निकलने वाली प्रज्ज्वलित अग्नि देवताओं के एक सौ वर्ष तक या मनुष्यों के ३६,००० वर्षों तक धधकती रहती है। इसके पश्चात् अगले ३६,००० वर्षों तक मूसलाधार वर्षा के साथ साथ प्रचण्ड वायु तथा लहरें उठती हैं और समुद्र तथा महासागर उमडऩे लगते हैं। ७२,००० वर्षों के ये घात-प्रतिघात तीनों लोकों के आंशिक प्रलय के आरम्भ हैं। लोकों के इन प्रलयों को भूलकर लोग सभ्यता की भौतिक प्रगति में अपने को सुखी मानते हैं। यही माया कहलाती है अर्थात् “वह जो नहीं हैं।”
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥