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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 11: परमाणु से काल की गणना  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.11.32 
अन्त: स तस्मिन् सलिल आस्तेऽनन्तासनो हरि: ।
योगनिद्रानिमीलाक्ष: स्तूयमानो जनालयै: ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
अन्त:—भीतर; स:—वह; तस्मिन्—उस; सलिले—जल में; आस्ते—है; अनन्त—अनन्त के; आसन:—आसन पर; हरि:— भगवान्; योग—योग की; निद्रा—नींद; निमील-अक्ष:—बन्द आँखें; स्तूय-मान:—प्रकीर्तित; जन-आलयै:—जनलोक के निवासियों द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 परमेश्वर अर्थात् भगवान् हरि अपनी आँखें बन्द किए हुए अनन्त के आसन पर जल में लेट जाते हैं और जनलोक के निवासी हाथ जोड़ कर भगवान् की महिमामयी स्तुतियाँ करते हैं।
 
तात्पर्य
 हमें भगवान् की शयन अवस्था को अपनी नींद जैसा नहीं समझना चाहिए। यहाँ पर योग निद्रा शब्द का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है, जो सूचित करता है कि भगवान् की शयन अवस्था भी उनकी अन्तरंगा शक्ति की अभिव्यक्ति है। जब भी योग शब्द व्यवहृत किया जाता है इसे ‘दिव्य’ का द्योतक समझना चाहिए। दिव्य अवस्था में समस्त कार्यकलाप विद्यमान रहते हैं और उनकी महिमा का बखान भृगु जैसे महान् ऋषियों की स्तुतियों द्वारा होता है।
 
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