श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 11: परमाणु से काल की गणना  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  3.11.33 
एवंविधैरहोरात्रै: कालगत्योपलक्षितै: ।
अपक्षितमिवास्यापि परमायुर्वय: शतम् ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; विधै:—विधि से; अह:—दिनों; रात्रै:—रात्रियों के द्वारा; काल-गत्या—काल की प्रगति; उपलक्षितै:—ऐसे लक्षणों द्वारा; अपक्षितम्—घटती हुई; इव—सदृश; अस्य—उसकी; अपि—यद्यपि; परम-आयु:—आयु; वय:—वर्ष; शतम्— एक सौ ।.
 
अनुवाद
 
 इस तरह ब्रह्माजी समेत प्रत्येक जीव के लिए आयु की अवधि के क्षय की विधि विद्यमान रहती है। विभिन्न लोकों में काल के सन्दर्भ में हर किसी जीव की आयु केवल एक सौ वर्ष तक होती है।
 
तात्पर्य
 विभिन्न जीवों के लिए विभिन्न लोकों में कालावधि के अनुसार हर जीव एक सौ वर्ष तक जीवित रहता है। जीवन के ये सौ वर्ष प्रत्येक अवस्था में समान नहीं होते। एक सौ वर्षों की सबसे दीर्घ आयु ब्रह्माजी की होती है और ब्रह्मा का जीवन बहुत दीर्घ होने पर भी समय आने पर समाप्त हो जाता है। ब्रह्मा भी अपनी मृत्यु से भयभीत रहते हैं, अतएव वे भगवान् की भक्ति करते हैं जिससे वे माया के पाश से छुटकारा पा सकें। हाँ, पशुओं में उत्तरदायित्व का कोई बोध नहीं होता। किन्तु मनुष्य भी, जिनमें उत्तरदायित्व का बोध विकसित रहता है, भगवान् की भक्ति में लगे बिना अपना अमूल्य समय व्यर्थ खोते रहते हैं। वे आसन्न मृत्यु से डरे बिना मौज से रहते हैं। यह मानव समाज का पागलपन है। पागल मनुष्य का जीवन में कोई उत्तरदायित्व नहीं होता। इसी तरह जो मनुष्य मरने के पूर्व उत्तरदायित्व का बोध विकसित नहीं कर लेता वह उस पागल व्यक्ति के समान है, जो भविष्य की किसी प्रकार की चिन्ता किये बिना भौतिक जीवन का आनन्द लेना चाहता है। यह आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य अगले जीवन के लिए अपने को तैयार करने के लिए उत्तरदायी बने, भले ही उसकी आयु इस ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े प्राणी ब्रह्मा जितनी क्यों न हो।
 
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