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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 11: परमाणु से काल की गणना  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  3.11.38 
कालोऽयं द्विपरार्धाख्यो निमेष उपचर्यते ।
अव्याकृतस्यानन्तस्य ह्यनादेर्जगदात्मन: ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
काल:—नित्य काल; अयम्—यह (ब्रह्मा की आयु की अवधि से मापा गया); द्वि-परार्ध-आख्य:—ब्रह्मा के जीवन के दो अर्धों से मापा हुआ; निमेष:—एक क्षण से भी कम; उपचर्यते—इस तरह मापा जाता है; अव्याकृतस्य—अपरिवर्तित रहता है, जो, उसका; अनन्तस्य—असीम का; हि—निश्चय ही; अनादे:—आदि-रहित का; जगत्-आत्मन:—ब्रह्माण्ड की आत्मा का ।.
 
अनुवाद
 
 जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ब्रह्मा के जीवन के दो भागों की अवधि भगवान् के लिए एक निमेष (एक सेकेंड से भी कम) के बराबर परिगणित की जाती है। भगवान् अपरिवर्तनीय तथा असीम हैं और ब्रह्माण्ड के समस्त कारणों के कारण हैं।
 
तात्पर्य
 महर्षि मैत्रेय ने काल के विभिन्न मापों का परमाणु से लेकर ब्रह्मा की आयु की अवधि तक का पर्याप्त विवरण दिया है। अब वे अनन्त भगवान् के काल का कुछ अनुमान प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। वे उनके असीम काल का संकेत ब्रह्मा के जीवन के मानदण्ड द्वारा देते हैं। ब्रह्मा की पूरी आयु की गणना भगवान् के काल के एक सेकेंड से भी कम है और वह ब्रह्म-संहिता (५.४८) में इस प्रकार बतलाई गई है : यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्य जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथा:।

विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥

“मैं समस्त कारणों के कारण भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जिनका स्वांश महाविष्णु है। असंख्य ब्रह्माण्डों के सारे प्रधान (ब्रह्मा-गण) उनके एक श्वास में लगने वाले समय की शरण ग्रहण करके जीवित रहते हैं।” निर्विशेषवादी भगवान् के स्वरूप पर विश्वास नहीं करते, अत: वे भगवान् के शयन करने पर विश्वास नहीं करेंगे। उनका विचार अल्पज्ञान से उत्पन्न है। वे हर वस्तु की गणना मनुष्य की क्षमता के रूप में करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर का अस्तित्व सक्रिय मानव जीवन के सर्वथा विपरीत है। चूँकि मनुष्य के इन्द्रियाँ होती हैं, अतएव भगवान इन्द्रिय-अनुभूति से विहीन होगा; चूँकि मनुष्य के स्वरूप है, अत: परमात्मा स्वरूप से विहीन होगा; चूँकि मनुष्य सोता है, अत: सर्वोपरि को नहीं सोना चाहिए। किन्तु श्रीमद्भागवत ऐसे निर्विशेषवादियों से सहमत नहीं। यहाँ पर स्पष्ट कहा गया है कि परमेश्वर योग-निद्रा में शयन करते हैं जैसा पहले कहा जा चुका है। चूँकि वे सोते हैं, अत: स्वाभाविक है कि वे साँस लेंते होंगे और ब्रह्म-संहिता इसकी पुष्टि करती है कि उनके श्वास लेने की अवधि में असंख्य ब्रह्मा जन्म लेते तथा मरते हैं।

श्रीमद्भागवत तथा ब्रह्म-संहिता में पूर्ण मतैक्य है। नित्य काल कभी भी ब्रह्मा के जीवन के साथ नष्ट नहीं होता। यह चलता रहता है, किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को नियंत्रित करने की क्षमता इसमें नहीं है, क्योंकि भगवान् काल के नियंत्रक हैं। आध्यात्मिक जगत में काल तो निस्सन्देह, है, किन्तु कार्यकलापों पर इसका नियंत्रण नहीं होता। काल असीम है और आध्यात्मिक जगत भी असीम है, क्योंकि वहाँ पर हर वस्तु परम स्तर पर विद्यमान रहती है।

 
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