श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 11: परमाणु से काल की गणना  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.11.5 
अणुर्द्वौ परमाणु स्यात्त्रसरेणुस्त्रय: स्मृत: ।
जालार्करश्म्यवगत: खमेवानुपतन्नगात् ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
अणु:—द्विगुण परमाणु; द्वौ—दो; परम-अणु—परमाणु; स्यात्—बनते हैं; त्रसरेणु:—षट् परमाणु; त्रय:—तीन; स्मृत:— विचार किया हुआ; जाल-अर्क—खिडक़ी के पर्दे के छेदों से होकर धूप को; रश्मि—किरणों द्वारा; अवगत:—जाना जा सकता है; खम् एव—आकाश की ओर; अनुपतन् अगात्—ऊपर जाते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 स्थूल काल की गणना इस प्रकार की जाती है: दो परमाणु मिलकर एक द्विगुण परमाणु (अणु) बनाते हैं और तीन द्विगुण परमाणु (अणु) एक षट् परमाणु बनाते हैं। यह षट्परमाणु उस सूर्य प्रकाश में दृष्टिगोचर होता है, जो खिडक़ी के परदे के छेदों से होकर प्रवेश करता है। यह आसानी से देखा जा सकता है कि षट्परमाणु आकाश की ओर ऊपर जाता है।
 
तात्पर्य
 परमाणु का वर्णन अदृश्य कण के रूप में किया जाता है, किन्तु जब ऐसे छह कण परस्पर मिलते हैं, तो वे त्रसरेणु कहलाते हैं और इन्हें खिडक़ी के परदे के छेदों से होकर आने वाली धूप में देखा जा सकता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥