हृदिन्द्रियाण्यसुर्व्योम वायुरग्निर्जलं मही ।
सूर्यश्चन्द्रस्तपश्चैव स्थानान्यग्रे कृतानि ते ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
हृत्—हृदय; इन्द्रियाणि—इन्द्रियाँ; असु:—प्राणवायु; व्योम—आकाश; वायु:—वायु; अग्नि:—आग; जलम्—जल; मही— पृथ्वी; सूर्य:—सूर्य; चन्द्र:—चन्द्रमा; तप:—तपस्या; च—भी; एव—निश्चय ही; स्थानानि—ये सारे स्थान; अग्रे—इसके पहले के; कृतानि—पहले किये गये; ते—तुम्हारे लिए ।.
अनुवाद
हे बालक, मैंने तुम्हारे निवास के लिए पहले से निम्नलिखित स्थान चुन लिये हैं: हृदय, इद्रियाँ, प्राणवायु, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तपस्या।
तात्पर्य
ब्रह्मा के क्रोध के फलस्वरूप उनकी भौहों के बीच से रुद्र का जन्म, जो कि कुछ-कुछ तमोगुण तथा रजोगुण से उत्पन्न हुआ था, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भगवद्गीता (३.३७) में रुद्रतत्त्व का वर्णन हुआ है। क्रोध काम से उत्पन्न होता है, जो रजोगुण का प्रतिफल है। जब काम तथा लालसा अतुष्ट रह जाते हैं, तो क्रोध उत्पन्न होता है, जो बद्धजीव का भीषण शत्रु है। इस अति पापमय तथा शत्रुवत् काम का प्रतिनिधित्व अहंकार—अपने आपको सर्वेसर्वा सोचने की मिथ्या अहंवादी प्रवृत्ति— के रूप में होता है। बद्धजीव जो कि पूरी तरह भौतिक प्रकृति के वश में है उसके लिए इस अहंकार के होने को भगवद्गीता में मूर्खतापूर्ण कहा गया है। यह अहंकार हृदय में रुद्र का रूप है जहाँ क्रोध उत्पन्न होता है। यह क्रोध हृदय में विकसित होता है और विविध इन्द्रियों यथा आँखों, हाथों, पावों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। जब मनुष्य क्रुद्ध होता है, तो वह ऐसे क्रोध को लाल-लाल आँखों से और कभी कभी मुट्ठी बाँध कर या पैर पटक कर प्रदर्शित करता है। रुद्र तत्त्व का यह प्रदर्शन ऐसे स्थानों में रुद्र की उपस्थिति का प्रमाण है। जब कोई व्यक्ति क्रुद्ध होता है, तो वह तेजी से साँस लेता है और इस तरह प्राणवायु द्वारा या श्वास लेने की क्रियाओं द्वारा रुद्र का प्रतिनिधित्व होता है। जब आकाश में घने बादल घिरे रहते हैं और वे क्रोध में गरजते हैं और जब वायु प्रचण्ड रूप से बहती है, तो रुद्र तत्त्व प्रकट होता है और इसी तरह जब सागर का जल वायु द्वारा क्रुद्ध किया जाता है, तो वह रुद्र के विषाद्-रूप जैसा प्रतीत होता है, जो सामान्य व्यक्ति के लिए अतीव भयावह है। जब आग धधकती होती है, तो भी हम रुद्र की उपस्थिति का अनुभव कर सकते हैं और जब पृथ्वी पर बाढ़ आती है, तो हम यह समझ सकते हैं कि यह भी रुद्र का स्वरूप है।
पृथ्वी के ऐसे अनेक प्राणी हैं, जो निरन्तर रुद्र तत्त्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। साँप, बाघ तथा सिंह सदा ही रुद्र के स्वरूप हैं। कभी-कभी सूर्य की अधिक ऊष्मा के कारण लू लगती है और चन्द्रमा के द्वारा उत्पन्न अत्यधिक शीतलता के कारण हृदयगति रुकने की घटनाएँ होती हैं। ऐसे अनेक मुनि हैं, जो तपस्या द्वारा शक्त्याविष्ट होते हैं और अनेक योगी, दार्शनिक तथा त्यागी हैं, जो क्रोध तथा काम के रुद्रतत्त्व के वशीभूत होकर अपनी अर्जित शक्ति को यदा-कदा प्रदर्शित करते हैं। महान् योगी दुर्वासा ने इसी रुद्रतत्त्व के प्रभाव में आकर महाराज अम्बरीष से झगड़ा किया और एक ब्राह्मण बालक ने महान् राजा परीक्षित को शाप देकर रुद्रतत्व का प्रदर्शन किया। जब रुद्रतत्त्व ऐसे व्यक्तियों द्वारा प्रकट किया जाता है, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की भक्ति में नहीं लगे हैं, तो क्रुद्ध व्यक्ति अपने उच्चस्थ उन्नत स्थान से नीचे गिर जाता है। इसकी पुष्टि श्रीमद्भागवत (१०.२.३२) में इस प्रकार हुई है—