नारद ब्रह्मा के शरीर के सर्वोच्च अंग मस्तिष्क से उत्पन्न पुत्र हैं। वसिष्ठ उनकी श्वास से, दक्ष अँगूठे से, भृगु उनके स्पर्श से तथा क्रतु उनके हाथ से उत्पन्न हुए।
तात्पर्य
नारद ब्रह्मा के सर्वोच्च विचार-विमर्श से उत्पन्न हुए थे, क्योंकि नारद जिसे भी चाहते उसी को परमेश्वर प्रदान कर सकते थे। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को कितने भी वैदिक ज्ञान के द्वारा या कितनी भी तपस्या के द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता। किन्तु नारद जैसा शुद्ध भगवद्भभक्त अपनी सदिच्छा द्वारा परमेश्वर प्रदान करा सकता है। नारद नाम से यह सुझाव मिलता है कि वे परमेश्वर प्रदान करा सकते हैं। नार का अर्थ है “परमेश्वर” तथा द का अर्थ है “जो प्रदान कर सके।” वह भगवान् को प्रदान कर सकता है का अर्थ यह कदापि नहीं कि भगवान् कोई व्यापारिक वस्तु के सदृश हैं जिसे किसी भी व्यक्ति को प्रदान किया जा सकता है। किन्तु नारद किसी को भी भगवान् के दास, मित्र, माता-पिता या प्रेमी के रूप में भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति प्रदान करा सकते हैं जैसी भी चाह कोई व्यक्ति अपने दिव्य भगवत्प्रेम के कारण कर सके। दूसरे शब्दों में, एकमात्र नारद ही ऐसे हैं, जो भक्तियोग का मार्ग प्रदान कर सकते हैं, जो कि परमेश्वर की प्राप्ति के लिए सर्वोच्च योगिक साधन है।
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