श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 12: कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  3.12.25 
धर्म: स्तनाद्दक्षिणतो यत्र नारायण: स्वयम् ।
अधर्म पृष्ठतो यस्मान्मृत्युर्लोकभयङ्कर: ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
धर्म:—धर्म; स्तनात्—वक्षस्थल से; दक्षिणत:—दाहिनी ओर के; यत्र—जिसमें; नारायण:—परमेश्वर; स्वयम्—अपने से; अधर्म:—अधर्म; पृष्ठत:—पीठ से; यस्मात्—जिससे; मृत्यु:—मृत्यु; लोक—जीव के लिए; भयम्-कर:—भयकारक ।.
 
अनुवाद
 
 धर्म ब्रह्मा के वक्षस्थल से प्रकट हुआ जहाँ पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण आसीन हैं और अधर्म उनकी पीठ से प्रकट हुआ जहाँ जीव के लिए भयावह मृत्यु उत्पन्न होती है।
 
तात्पर्य
 यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि धर्म उस स्थान से प्रकट हुआ जहाँ स्वयं भगवान् आसीन हैं, क्योंकि धर्म का अर्थ है भगवान् की भक्तिमय सेवा जिसकी पुष्टि भगवद्गीता तथा भागवत में हुई है। भगवद्गीता में अन्तिम उपदेश धर्म के नाम पर अन्य सारे कार्यों को त्याग कर भगवान् की शरण लेने के लिए है। श्रीमद्भागवत में भी पुष्टि हुई है कि धर्म की सर्वोच्च सिद्धि वह है, जो भौतिक अवरोधों से प्रेरित हुए बिना तथा बिना किसी प्रतिरोध के भगवद्भक्ति तक ले जाय। धर्म अपने पूर्ण रूप में भगवद्भक्ति है और अधर्म इसका विलोम है। हृदय शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है, जबकि पीठ सबसे उपेक्षित अंग है। जब कोई शत्रु हमला करता है, तो मनुष्य पीठ की ओर (पीछे) से प्रहार सहन कर सकता है, किन्तु वह वक्षस्थल पर होने वाले प्रहारों से अपनी रक्षा पूरी सावधानी से करना चाहेगा। सभी प्रकार के अधर्म ब्रह्मा की पीठ से उत्पन्न होते हैं जबकि असली धर्म या भगवद्भक्ति नारायण के वास-स्थान वक्षस्थल से उत्पन्न होती है। जो वस्तु भगवद्भक्ति तक न ले जा सके वह अधर्म है और जो वस्तु भगवद्भक्ति तक ले जाए वह धर्म कहलाती है।
 
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