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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 12: कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  3.12.3 
दृष्ट्वा पापीयसीं सृष्टिं नात्मानं बह्वमन्यत ।
भगवद्ध्यानपूतेन मनसान्यां ततोऽसृजत् ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
दृष्ट्वा—देखकर; पापीयसीम्—पापमयी; सृष्टिम्—सृष्टि को; —नहीं; आत्मानम्—स्वयं को; बहु—अत्यधिक हर्ष; अमन्यत— अनुभव किया; भगवत्—भगवान् का; ध्यान—ध्यान; पूतेन—उसके द्वारा शुद्ध; मनसा—मन से; अन्याम्—दूसरा; तत:— तत्पश्चात्; असृजत्—उत्पन्न किया ।.
 
अनुवाद
 
 ऐसी भ्रामक सृष्टि को पापमय कार्य मानते हुए ब्रह्माजी को अपने कार्य में अधिक हर्ष का अनुभव नहीं हुआ, अतएव उन्होंने भगवान् के ध्यान द्वारा अपने आपको परि शुद्ध किया। तब उन्होंने सृष्टि की दूसरी पारी की शुरुआत की।
 
तात्पर्य
 यद्यपि ब्रह्माजी ने विभिन्न प्रकार की अविद्याओं की सृष्टि की, किन्तु वे ऐसे अप्रशंसित कार्य को सम्पन्न करके संतुष्ट नहीं थे। उन्हें यह कार्य इसलिए करना पड़ा, क्योंकि अधिकांश बद्धात्माएँ ऐसा चाहती थीं। भगवान् कृष्ण का भगवद्गीता (१५.१५) में कथन है कि वे सबों के हृदय में उपस्थित हैं और हर एक को स्मरण करने या भुलाने में सहायता करते हैं। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि सर्वदयामय भगवान् एक की सहायता स्मरण रखने में और दूसरे की विस्मरण करने में क्यों करते हैं। वस्तुत: उनकी कृपा एक के प्रति पक्षपात के रूप में तथा दूसरे के प्रति शत्रुता के रूप में प्रदर्शित नहीं होती। भगवान् के अंश रूप में जीव अंशत: स्वतंत्र है, क्योंकि उसमें भगवान् के समस्त गुण अंशत: पाये जाते हैं। जिस किसी के पास थोड़ी सी भी स्वतंत्रता होती है, वह अज्ञानवश उसका दुरुपयोग कर सकता है। अब जीव अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने को अच्छा मानकर अविद्या में जाने लगता है, तो सर्वदयालु भगवान् सर्वप्रथम उसको पाश से बचाने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु जब जीव नरक की ओर गिरते जाने पर उतारू हो जाता है, तो भगवान् उसे उसकी असली स्थिति को भुलवाने में सहायता करते हैं। भगवान् गिरने वाले जीव को सबसे निचले बिन्दु तक गिरने में सहायता करते हैं जिससे वह देख सके कि अपनी स्वतंत्रता के दुरुपयोग से वह सुखी है कि नहीं।

इस जगत में सड़ रहे प्राय: सारे बद्धजीव अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रहे हैं अत: उन पर पाँचों प्रकार की अविद्याएँ थोप दी जाती हैं। ब्रह्माजी भगवान् के आज्ञाकारी सेवक के रूप में अविद्याओं को आवश्यकताओं के रूप में उत्पन्न करते हैं, किन्तु ऐसा करते हुए वे प्रसन्न नहीं होते, क्योंकि यह स्वाभाविक है कि भगवद्भक्त किसी को उसके असली पद से नीचे गिरता नहीं देखना चाहता। जो व्यक्ति साक्षात्कार के मार्ग की परवाह नहीं करते उन्हें भगवान् उनकी दुष्प्रवृत्तियों को जी भर के करने देते हैं और ब्रह्मा उसमें निश्चित रूप से सहायक बनते हैं।

 
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