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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 12: कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.12.31 
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्गुरो ।
यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वै लोक: क्षेमाय कल्पते ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
तेजीयसाम्—अत्यन्त शक्तिशालियों में; अपि—भी; हि—निश्चय ही; एतत्—ऐसा कार्य; —उपयुक्त नहीं; सु-श्लोक्यम्— अच्छा आचरण; जगत्-गुरो—हे ब्रह्माण्ड के गुरु; यत्—जिसका; वृत्तम्—चरित्र; अनुतिष्ठन्—पालन करते हुए; वै—निश्चय ही; लोक:—जगत; क्षेमाय—सम्पन्नता के लिए; कल्पते—योग्य बन जाता है ।.
 
अनुवाद
 
 यद्यपि आप सर्वाधिक शक्तिमान जीव हैं, किन्तु यह कार्य आपको शोभा नहीं देता क्योंकि सामान्य लोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए आपके चरित्र का अनुकरण करते हैं।
 
तात्पर्य
 कहा जाता है कि परम शक्तिशाली जीव चाहे तो कुछ भी कर सकता है और ऐसे कार्यों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ, इस ब्रह्माण्ड में सूर्य सबसे शक्तिशाली अग्निमय ग्रह है। वह कहीं से भी जल को भाप बनाकर उड़ा सकता है और फिर भी उतना ही शक्तिशाली बना रहता है। सूर्य गन्दे स्थानों से जल को उड़ाता है फिर भी वह गंदगी के गुण से संदूषित नहीं होता। इसी तरह ब्रह्मा सभी दशाओं में महाभियोग से मुक्त बने रहते हैं। किन्तु फिर भी सारे जीवों के गुरु होने के कारण उनके आचरण तथा चरित्र को इतना आदर्श होना चाहिए कि लोग ऐसे उदात्त आचरण का अनुसरण कर सकें और सर्वोच्च आध्यात्मिक लाभ उठा सकें। अत: उन्हें ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए था जैसा उन्होंने किया।
 
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