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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 12: कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  3.12.33 
स इत्थं गृणत: पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तम: ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह (ब्रह्मा); इत्थम्—इस प्रकार; गृणत:—बोलते हुए; पुत्रान्—पुत्र; पुर:—पहले; दृष्ट्वा—देखकर; प्रजा-पतीन्—जीवों के पूर्वजों को; प्रजापति-पति:—उन सबों के पिता (ब्रह्मा); तन्वम्—शरीर; तत्याज—त्याग दिया; व्रीडित:—लज्जित; तदा— उस समय; ताम्—उस शरीर को; दिश:—सारी दिशाएँ; जगृहु:—स्वीकार किया; घोराम्—निन्दनीय; नीहारम्—नीहार, कुहरा; यत्—जो; विदु:—वे जानते हैं; तम:—अंधकार के रूप में ।.
 
अनुवाद
 
 अपने समस्त प्रजापति पुत्रों को इस प्रकार बोलते देख कर समस्त प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा अत्यधिक लज्जित हुए और तुरन्त ही उन्होंने अपने द्वारा धारण किये हुए शरीर को त्याग दिया। बाद में वही शरीर अंधकार में भयावह कुहरे के रूप में सभी दिशाओं में प्रकट हुआ।
 
तात्पर्य
 अपने पापमय कृत्यों की क्षति-पूर्ति के लिए प्रायश्चित्त का सर्वोत्तम उपाय अपने शरीर को तुरन्त त्याग देना है और जीवों के नायक ब्रह्मा ने इसे अपने उदाहरण से दिखला दिया। ब्रह्मा की आयु असीम होती है किन्तु उन्हें अपने घोर पाप के कारण, जिसे उन्होंने मन में केवल सोचा ही था, वास्तव में किया नहीं था, अपना शरीर त्यागना पड़ा।

यह जीवों के लिए शिक्षा है, जो यह दिखाती है कि अनियंत्रित यौन जीवन में संलग्न होना कितना पापपूर्ण कृत्य है। गर्हित यौन जीवन के विषय में सोचना भी पापपूर्ण है और ऐसे पापपूर्ण कृत्यों की क्षतिपूर्ति के लिए मनुष्य को अपना शरीर त्यागना होता है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य की आयु, वरदान, ऐश्वर्य इत्यादि सभी बातें पापपूर्ण कृत्यों से घटती हैं और सबसे भयावह पापपूर्ण कृत्य है अनियंत्रित यौन।

पापमय जीवन का कारण अज्ञान है अथवा पापमय जीवन ही निपट अज्ञान का कारण है। अज्ञान की विशेषता है अंधकार या कुहरा। अंधकार या कुहरा अब भी सारे ब्रह्माण्ड को आच्छादित किये है और सूर्य एकमात्र उसका प्रतिकार है। जो व्यक्ति नित्य प्रकाश रूप भगवान् की शरण ग्रहण करता है उसे कुहरे या अज्ञान के अंधकार में विलोप होने का भय नहीं रहता।

 
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