श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 12: कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  3.12.34 
कदाचिद् ध्यायत: स्रष्टुर्वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकान् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
कदाचित्—एक बार; ध्यायत:—ध्यान करते समय; स्रष्टु:—ब्रह्मा का; वेदा:—वैदिक वाङ्मय; आसन्—प्रकट हुए; चतु:- मुखात्—चारों मुखों से; कथम् स्रक्ष्यामि—मैं किस तरह सृजन करूँगा; अहम्—मैं; लोकान्—इन सारे लोकों को; समवेतान्—एकत्रित; यथा—जिस तरह वे थे; पुरा—भूतकाल में ।.
 
अनुवाद
 
 एक बार जब ब्रह्माजी यह सोच रहे थे कि विगत कल्प की तरह लोकों की सृष्टि कैसे की जाय तो चारों वेद, जिनमें सभी प्रकार का ज्ञान निहित है, उनके चारों मुखों से प्रकट हो गये।
 
तात्पर्य
 जिस तरह अग्नि बिना दूषित हुए हर वस्तु को क्षार कर सकती है उसी तरह भगवत्कृपा से ब्रह्मा की महानता रूपी अग्नि ने उनकी पुत्री के साथ पापपूर्ण यौनाचार की उनकी इच्छा को क्षार कर दिया। वेद समस्त ज्ञान के स्रोत हैं और जब ब्रह्मा पुन: सृष्टि करने का विचार कर रहे थे तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की कृपा से वे सर्वप्रथम ब्रह्मा को ही उद्धाटित किए गए। ब्रह्मा अपनी भगवद्भक्ति के कारण शक्तिशाली हैं। भगवान् अपने उस भक्त को सदैव क्षमा करने के लिए तैयार रहते हैं, जो कदाचित् अपने भक्ति के सन्मार्ग से पतित हो जाता है। श्रीमद्भागवत (११.५.४२) में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है।

स्वपादमूलं भजत: प्रियस्य त्यक्त्वान्यभावस्य हरि: परेश:।

विकर्म यच्चोत्पतितं कथंचिद् धुनोति सर्व हृदि संनिविष्ट: ॥

“जो व्यक्ति पूरी तरह से भगवान् के चरणकमलों पर उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा रहता है, वह भगवान् हरि को अत्यन्त प्रिय है और भगवान् भक्त के हृदय में स्थित होकर संयोगवश किये गये सभी प्रकार के पापों को क्षमा कर देते हैं।” यह कभी भी आशा नहीं की जाती थी कि ब्रह्मा जैसा महापुरुष अपनी पुत्री के साथ संभोग करने का विचार भी करेगा। ब्रह्मा द्वारा प्रस्तुत किया गया उदाहरण केवल यह निर्देशित करता है कि भौतिक प्रकृति की शक्ति इतनी प्रबल है कि यह किसी पर भी, यहाँ तक कि ब्रह्मा पर भी, अपना प्रभाव दिखा सकती है। ब्रह्माजी अत्यल्प दण्ड के साथ भगवत्कृपा से बचा लिए गये, किन्तु भगवत्कृपा से महान् ब्रह्मा के रूप में उनकी प्रतिष्ठा समाप्त नहीं हुई।

 
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