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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 12: कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  3.12.41 
विद्या दानं तप: सत्यं धर्मस्येति पदानि च ।
आश्रमांश्च यथासंख्यमसृजत्सह वृत्तिभि: ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
विद्या—विद्या; दानम्—दान; तप:—तपस्या; सत्यम्—सत्य; धर्मस्य—धर्म का; इति—इस प्रकार; पदानि—चार पाँव; — भी; आश्रमान्—आश्रमों; —भी; यथा—वे जिस प्रकार के हैं; सङ्ख्यम्—संख्या में; असृजत्—रचना की; सह—साथ साथ; वृत्तिभि:—पेशों या वृत्तियों के द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 शिक्षा, दान, तपस्या तथा सत्य को धर्म के चार पाँव कहा जाता है और इन्हें सीखने के लिए चार आश्रम हैं जिनमें वृत्तियों के अनुसार जातियों (वर्णों) का अलग-अलग विभाजन रहता है। ब्रह्मा ने इन सबों की क्रमबद्ध रूप में रचना की।
 
तात्पर्य
 चारों आश्रमों—ब्रह्मचर्य अर्थात् छात्र जीवन, गृहस्थ अर्थात् पारिवारिक जीवन, वानप्रस्थ अर्थात् तपस्या के निमित्त निवृत्त जीवन तथा संन्यास अर्थात् सत्य के प्रचार हेतु विरक्त जीवन—के केन्द्र धर्म के चार पाँव हैं। वृत्तिपरक विभाग हैं—ब्राह्मण अर्थात् बुद्धिमान वर्ग, क्षत्रिय अर्थात् प्रशासक वर्ग, वैश्य अर्थात् व्यापारी वर्ग तथा शूद्र अर्थात् बिना किसी विशेष योग्यता वाले सामान्य श्रमिक वर्ग। ब्रह्मा ने आत्म-साक्षात्कार में नियमित उन्नति के लिए इन सबों की क्रमबद्ध योजना तथा रचना की। ब्रह्यचर्य सर्वोत्तम शिक्षा प्राप्त करने के निमित्त है; गृहस्थ इन्द्रियतृप्ति के लिए है बशर्ते कि यह मन की उदारवृत्ति से की जाय; वानप्रस्थ आध्यात्मिक जीवन में प्रगति के हेतु तपस्या करने के लिए है और संन्यास सामान्य लोगों को परम सत्य के विषय में उपेदश देने के निमित्त है। समाज के सारे सदस्यों के मिलेजुले कार्यों से मानव जीवन के उद्देश्य के उत्थान हेतु अनुकूल स्थिति उत्पन्न करनी है। इस सामाजिक संस्थान की शुरुआत उस शिक्षा पर आधारित है, जो मनुष्य की पाशविक लालसाओं को शुद्ध करने के लिए है। सर्वोच्च शुद्धीकरण (संस्कार) विधि शुद्धों में परम शुद्ध पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का ज्ञान है।
 
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