श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 12: कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  3.12.42 
सावित्रं प्राजापत्यं च ब्राह्मं चाथ बृहत्तथा ।
वार्तासञ्चयशालीनशिलोञ्छ इति वै गृहे ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
सावित्रम्—द्विजों का यज्ञोपवीत संस्कार; प्राजापत्यम्—एक वर्ष तक व्रत रखने के लिए; च—तथा; ब्राह्मम्—वेदों की स्वीकृति; च—तथा; अथ—भी; बृहत्—यौनजीवन से पूर्ण विरक्ति; तथा—तब; वार्ता—वैदिक आदेश के अनुसार वृत्ति; सञ्चय—वृत्तिपरक कर्तव्य; शालीन—किसी का सहयोग माँगे बिना जीविका; शिल-उञ्छ:—त्यक्त अन्नों को बीनना; इति— इस प्रकार; वै—यद्यपि; गृहे—गृहस्थ जीवन में ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् द्विजों के लिए यज्ञोपवीत संस्कार (सावित्र) का सूत्रपात हुआ और उसी के साथ वेदों की स्वीकृति के कम से कम एक वर्ष बाद तक पालन किये जाने वाले नियमों (प्राजापत्यम्), यौनजीवन से पूर्ण विरक्ति के नियम (बृहत्), वैदिक आदेशों के अनुसार वृत्तियाँ (वार्ता), गृहस्थ जीवन के विविध पेशेवार कर्तव्य (सञ्चय) तथा परित्यक्त अन्नों को बीन कर (शिलोञ्छ) एवं किसी का सहयोग लिए बिना (अयाचित) जीविका चलाने की विधि का सूत्रपात हुआ।
 
तात्पर्य
 विद्यार्थी जीवन में ब्रह्मचारियों को मनुष्यजीवन की महत्ता के विषय में पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। इस तरह प्रारम्भिक शिक्षा विद्यार्थी को पारिवारिक झंझटों से मुक्त बनने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए थी। जो विद्यार्थी ऐसे व्रत को स्वीकार करने में अक्षम होते थे केवल उन्हें घर वापस जाने और उपयुक्त पत्नी से विवाह करने की अनुमति दी जाती थी। अन्यथा विद्यार्थी जीवन भर यौन जीवन से पूरी तरह विरत रहकर स्थायी ब्रह्मचारी बना रहता था। यह सब विद्यार्थी के प्रशिक्षण की गुणवत्ता पर निर्भर करता था। हमें अपने ॐ गुरु विष्णुपाद श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त गोस्वामी महाराज जैसे व्रतधारी ब्रह्मचारी से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। ऐसे महापुरुष नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं।
 
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