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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 12: कुमारों तथा अन्यों की सृष्टि  »  श्लोक 47
 
 
श्लोक  3.12.47 
स्पर्शस्तस्याभवज्जीव: स्वरो देह उदाहृत ।
ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुरन्त:स्था बलमात्मन: ।
स्वरा: सप्त विहारेण भवन्ति स्म प्रजापते: ॥ ४७ ॥
 
शब्दार्थ
स्पर्श:—क से म तक के अक्षरों का समूह; तस्य—उसका; अभवत्—हुआ; जीव:—आत्मा; स्वर:—स्वर; देह:—उनका शरीर; उदाहृत:—व्यक्त किये जाते हैं; ऊष्माणम्—श, ष, स तथा ह अक्षर; इन्द्रियाणि—इन्द्रियाँ; आहु:—कहलाते हैं; अन्त:-स्था:— य, र, ल तथा व ये अन्तस्थ अक्षर हैं; बलम्—शक्ति; आत्मन:—उसका; स्वरा:—संगीत; सप्त—सात; विहारेण—ऐन्द्रिय कार्यकलाप के द्वारा; भवन्ति स्म—प्रकट हुए; प्रजापते:—जीवों के स्वामी का ।.
 
अनुवाद
 
 ब्रह्मा की आत्मा स्पर्श अक्षरों के रूप में, उनका शरीर स्वरों के रूप में, उनकी इन्द्रियाँ ऊष्म अक्षरों के रूप में, उनका बल अन्त:स्थ अक्षरों के रूप में और उनके ऐन्द्रिय कार्यकलाप संगीत के सप्त स्वरों के रूप में प्रकट हुए।
 
तात्पर्य
 संस्कृत में १३ स्वर तथा ३५ व्यंजन हैं। स्वर हैं—अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, लृ, ए, ऐ, ओ, तथा औ एवं व्यजंन हैं—क, ख, ग, घ, आदि। व्यंजनों में प्रथम २५ अक्षर स्पर्श कहलाते हैं। चार अत:स्थ भी है। ऊष्मों में से तीन (श, ष, स) तालव्य, मूर्धन्य तथा दन्त्य कहलाते हैं। संगीत के स्वर हैं स, रे, ग, म, प, ध तथा नि। ये ध्वनियाँ मूलत: शब्द ब्रह्म अर्थात् आध्यात्मिक ध्वनि कहलाती हैं। अतएव यह कहा जाता है कि ब्रह्मा की सृष्टि शब्द ब्रह्म के अवतार के रूप में महाकल्प में हुई। वेद शब्द ब्रह्म हैं, अतएव वैदिक वाङ्मय की ध्वनियों की भौतिक व्याख्या करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वेदों का उच्चारण उसी रूप में किया जाना चाहिए जिस रूप में वे हैं, यद्यपि वे प्रतीक रूप में हमें भौतिक रूप से ज्ञात अक्षरों द्वारा प्रदर्शित किए जाते हैं। अन्ततोगत्वा कुछ भी भौतिक नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु का उद्गम आध्यात्मिक जगत से होता है। इसीलिए भौतिक जगत उचित अर्थों में मोह या भ्रम कहलाता है। जो लोग स्वरूपसिद्ध हैं उनके लिए आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है।
 
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