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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  3.13.17 
सृजतो मे क्षितिर्वार्भि:प्लाव्यमाना रसां गता ।
अथात्र किमनुष्ठेयमस्माभि: सर्गयोजितै: ।
यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
सृजत:—सृजन करते समय; मे—मेरा; क्षिति:—पृथ्वी; वार्भि:—जल के द्वारा; प्लाव्यमाना—आप्लावित की गई; रसाम्—जल की गहराई; गता—नीचे गया हुआ; अथ—इसलिए; अत्र—इस मामले में; किम्—क्या; अनुष्ठेयम्—क्या प्रयास किया जाना चाहिए; अस्माभि:—हमारे द्वारा; सर्ग—सृष्टि में; योजितै:—लगे हुए; यस्य—जिसका; अहम्—मैं; हृदयात्—हृदय से; आसम्—उत्पन्न; स:—वह; ईश:—परमेश्वर; विदधातु—निर्देश कर सकते हैं; मे—मुझको ।.
 
अनुवाद
 
 ब्रह्मा ने सोचा : जब मैं सृजन कार्य में लगा हुआ था, तो पृथ्वी बाढ़ से आप्लावित हो गई और समुद्र के गर्त में चली गई। हम लोग जो सृजन के इस कार्य में लगे हैं भला कर ही क्या सकते हैं? सर्वोत्तम यही होगा कि सर्वशक्तिमान हमारा निर्देशन करें।
 
तात्पर्य
 कभी-कभी भगवद्भक्त जो कि विश्वसनीय सेवक होते हैं अपना अपना कर्तव्य निभाते समय विमूढ़ हो जाते हैं, किन्तु वे हतोत्साहित कभी नहीं होते। उन्हें भगवान् में पूर्ण श्रद्धा होती है और भगवान् भक्तों के कर्तव्य पालन की उन्नति के मार्ग को सुगम बनाते हैं।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥