घ्राणेन—सूँघने से; पृथ्व्या:—पृथ्वी की; पदवीम्—स्थिति; विजिघ्रन्—पृथ्वी की खोज करते हुए; क्रोड-अपदेश:—सूकर का शरीर धारण किये हुए; स्वयम्—स्वयं; अध्वर—दिव्य; अङ्ग:—शरीर; कराल—भयावना; दंष्ट्र:—दाँत (दाढ़ें); अपि—के बावजूद; अकराल—भयावना नहीं; दृग्भ्याम्—अपनी चितवन से; उद्वीक्ष्य—दृष्टि दौड़ाकर; विप्रान्—सारे ब्राह्मण भक्त; गृणत:—स्तुति में लीन; अविशत्—प्रवेश दिया; कम्—जल में ।.
अनुवाद
वे साक्षात् परम प्रभु विष्णु थे, अतएव दिव्य थे, फिर भी सूकर का शरीर होने से उन्होंने पृथ्वी को उसकी गंध से खोज निकाला। उनकी दाढ़ें अत्यन्त भयावनी थीं। उन्होंने स्तुति करने में व्यस्त भक्त-ब्राह्मणों पर अपनी दृष्टि दौड़ाई। इस तरह वे जल में प्रविष्ट हुए।
तात्पर्य
हमें यह सदैव स्मरण रखना होगा कि यद्यपि शूकर का शरीर भौतिक होता है, किन्तु भगवान् का शूकर रूप भौतिकता से कल्मषग्रस्त नहीं था। किसी पार्थिव शूकर के लिए सम्भव नहीं कि वह ऐसा विराट रूप धारण कर सके जो सत्यलोक से लेकर पूरे आकाश में फैला हो। उनका शरीर सभी परिस्थितियों में दिव्य होता है, अतएव शूकर रूप धारण करना उनकी लीला मात्र है। उनका शरीर सम्पूर्ण वेद हैं या दिव्य है। किन्तु क्योंकि उन्होंने शूकर का रूप धारण किया था, अतएव वे शूकर की तरह सूँघ कर पृथ्वी की खोज करने लगे। भगवान् किसी भी जीव की भूमिका पूरी तरह से निभा सकते हैं। शूकर का विराट रूप निश्चय ही समस्त अभक्तों के लिए अतीव भयावना था किन्तु भगवान् के शुद्ध भक्तों के लिए वह तनिक भी भयावना नहीं था। विपरीत इसके, वे अपने भक्तों पर इतनी प्रसन्नता से दृष्टिपात कर रहे थे कि उन सबों को दिव्य सुख का अनुभव हुआ।
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