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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  3.13.29 
स वज्रकूटाङ्गनिपातवेग-
विशीर्णकुक्षि: स्तनयन्नुदन्वान् ।
उत्सृष्टदीर्घोर्मिभुजैरिवार्त-
श्चुक्रोश यज्ञेश्वर पाहि मेति ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; वज्र-कूट-अङ्ग—विशाल पर्वत जैसा शरीर; निपात-वेग—डुबकी लगाने का वेग; विशीर्ण—दो भागों में करते हैं; कुक्षि:—मध्य भाग को; स्तनयन्—के समान गुँजाते; उदन्वान्—समुद्र; उत्सृष्ट—उत्पन्न करके; दीर्घ—ऊँची; ऊर्मि—लहरें; भुजै:—बाँहों से; इव आर्त:—दुखी पुरुष की तरह; चुक्रोश—तेज स्वर से स्तुति की; यज्ञ-ईश्वर—हे समस्त यज्ञों के स्वामी; पाहि—कृपया बचायें; मा—मुझको; इति—इस प्रकार ।.
 
अनुवाद
 
 दानवाकार पर्वत की भाँति जल में गोता लगाते हुए भगवान् वराह ने समुद्र के मध्यभाग को विभाजित कर दिया और दो ऊँची लहरें समुद्र की भुजाओं की तरह प्रकट हुईं जो उच्च स्वर से आर्तनाद कर रही थीं मानो भगवान् से प्रार्थना कर रही हों,“हे समस्त यज्ञों के स्वामी, कृपया मेरे दो खण्ड न करें। कृपा करके मुझे संरक्षण प्रदान करें।”
 
तात्पर्य
 दिव्य शूकर के पर्वत जैसे शरीर के आ गिरने से महासागर तक विचलित था और वह भयभीत प्रतीत हो रहा था मानो मृत्यु निकट हो।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥