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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  3.13.3 
चरितं तस्य राजर्षेरादिराजस्य सत्तम ।
ब्रूहि मे श्रद्दधानाय विष्वक्सेनाश्रयो ह्यसौ ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
चरितम्—चरित्र; तस्य—उसका; राजर्षे:—ऋषितुल्य राजा का; आदि-राजस्य—आदि राजा का; सत्तम—हे अति पवित्र; ब्रूहि—कृपया कहें; मे—मुझसे; श्रद्दधानाय—प्राप्त करने के लिए जो इच्छुक है उसे; विष्वक्सेन—भगवान् का; आश्रय:— जिसने शरण ले रखी है; हि—निश्चय ही; असौ—वह राजा ।.
 
अनुवाद
 
 हे पुण्यात्मा श्रेष्ठ, राजाओं का आदि राजा (मनु) भगवान् हरि का महान् भक्त था, अतएव उसके शुद्ध चरित्र तथा कार्यकलाप सुनने योग्य हैं। कृपया उनका वर्णन करें। मैं सुनने के लिए अतीव उत्सुक हूँ।
 
तात्पर्य
 श्रीमद्भागवत भगवान् तथा उनके शुद्ध भक्तों की दिव्य कथाओं से ओतप्रोत है। परम जगत में भगवान् तथा उनके शुद्ध भक्त में गुणात्मक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं। इसलिए भगवान् की कथाओं के श्रवण तथा शुद्ध भक्त के चरित्र तथा कार्यकलापों के श्रवण का फल एक ही होता है, अर्थात् इनसे भक्ति का विकास होता है।
 
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