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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.13.31 
स्वदंष्ट्रयोद्‍धृत्य महीं निमग्नां
स उत्थित: संरुरुचे रसाया: ।
तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तं
सुनाभसन्दीपिततीव्रमन्यु: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
स्व-दंष्ट्रया—अपनी ही दाढ़ों से; उद्धृत्य—उठाकर; महीम्—पृथ्वी को; निमग्नाम्—डूबी हुई; स:—उसने; उत्थित:—ऊपर उठाकर; संरुरुचे—अतीव भव्य दिखाई पड़ा; रसाया:—जल से; तत्र—वहाँ; अपि—भी; दैत्यम्—असुर को; गदया—गदा से; आपतन्तम्—उसकी ओर दौड़ाते हुए; सुनाभ—कृष्ण का चक्र; सन्दीपित—चमकता हुआ; तीव्र—भयानक; मन्यु:—क्रोध ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् वराह ने बड़ी ही आसानी से पृथ्वी को अपनी दाढ़ों में ले लिया और वे उसे जल से बाहर निकाल लाये। इस तरह वे अत्यन्त भव्य लग रहे थे। तब उनका क्रोध सुदर्शन चक्र की तरह चमक रहा था और उन्होंने तुरन्त उस असुर (हिरण्याक्ष) को मार डाला, यद्यपि वह भगवान् से लडऩे का प्रयास कर रहा था।
 
तात्पर्य
 श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार वैदिक ग्रन्थों में भगवान् वराह के अवतार का वर्णन दो विभिन्न प्रलयों—चाक्षुष प्रलय तथा स्वायम्भुव प्रलय—में हुआ है। वराह का यह विशेष अवतार वस्तुत: स्वायम्भुव प्रलय में हुआ जब उच्चतर लोकों—जन, महर तथा सत्य—को छोड़ कर शेष सारे लोक प्रलय-जल में डूबे थे। वराह के इस अवतार को उपर्युक्त लोकों के वासियों ने देखा था। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती सुझाते हैं कि मुनि मैत्रेय ने विभिन्न प्रलयों के दोनों वराह अवतारों को एक में मिलाकर उनका सारांश रूप विदुर के समक्ष रखा।
 
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