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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.13.32 
जघान रुन्धानमसह्यविक्रमं
स लीलयेभं मृगराडिवाम्भसि ।
तद्रक्तपङ्काङ्कितगण्डतुण्डो
यथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
जघान—वध किया; रुन्धानम्—अवरोध उत्पन्न करनेवाला शत्रु; असह्य—असहनीय; विक्रमम्—पराक्रम; स:—उसने; लीलया—सरलतापूर्वक; इभम्—हाथी; मृग-राट्—सिंह; इव—सदृश; अम्भसि—जल में; तत्-रक्त—उसके रक्त का; पङ्क- अङ्कित—कीचड़ से रँगा हुआ; गण्ड—गाल; तुण्ड:—जीभ; यथा—मानो; गजेन्द्र:—हाथी; जगतीम्—पृथ्वी को; विभिन्दन्— खोदते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् भगवान् वराह ने उस असुर को जल के भीतर मार डाला जिस तरह एक सिंह हाथी को मारता है। भगवान् के गाल तथा जीभ उस असुर के रक्त से उसी तरह रँगे गये जिस तरह हाथी नीललोहित पृथ्वी को खोदने से लाल हो जाता है।
 
 
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