श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  3.13.35 
रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां
दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-
स्वाज्यं द‍ृशि त्वङ्‌घ्रि षु चातुर्होत्रम् ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
रूपम्—स्वरूप; तव—तुम्हारा; एतत्—यह; ननु—लेकिन; दुष्कृत-आत्मनाम्—दुष्टात्माओं का; दुर्दर्शनम्—देख पाना कठिन; देव—हे प्रभु; यत्—वह; अध्वर-आत्मकम्—यज्ञ सम्पन्न करने के कारण पूजनीय; छन्दांसि—गायत्री तथा अन्य छंद; यस्य— जिसके; त्वचि—त्वचा का स्पर्श; बर्हि:—कुश नामक पवित्र घास; रोमसु—शरीर के रोएँ; आज्यम्—घी; दृशि—आँखों में; तु—भी; अङ्घ्रिषु—चारों पाँवों पर; चातु:-होत्रम्—चार प्रकार के सकाम कर्म ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, आपका स्वरूप यज्ञ सम्पन्न करके पूजा के योग्य है, किन्तु दुष्टात्माएँ इसे देख पाने में असमर्थ हैं। गायत्री तथा अन्य सारे वैदिक मंत्र आपकी त्वचा के सम्पर्क में हैं। आपके शरीर के रोम कुश हैं, आपकी आँखें घृत हैं और आपके चार पाँव चार प्रकार के सकाम कर्म हैं।
 
तात्पर्य
 दुष्टों का एक वर्ग है, जिसे भगवद्गीता में वेदवादी कहा गया है, अर्थात् जो वेदों के कट्टर अनुयायी हैं। वे भगवान् के अवतार में विश्वास नहीं करते। पूज्य शूकर के रूप में भगवान् के अवतार के विषय में तो कुछ कहना ही नहीं। वे भगवान् के विभिन्न रूपों या अवतारों की पूजा को अवतारवाद कहते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार ये व्यक्ति दुष्ट हैं और भगवद्गीता (७.१५) में इन्हें न केवल दुष्ट, अपितु मूर्ख तथा मनुष्यों में अधम कहा गया है। और यह भी कहा गया है कि उनका ज्ञान उनके नास्तिकतावादी स्वभाव के कारण मोह द्वारा हरा जा चुका है। ऐसे गर्हित व्यक्तियों के लिए विराट शूकर के रूप में भगवान् का अवतार अदृश्य रहता है। वेदों के कट्टर अनुयायियों को, जो भगवान् के नित्य रूपों का उपहास करते हैं, श्रीमद्भागवत से जान लेना चाहिए कि ऐसे अवतार साक्षात् वेदों के रूप हैं। भगवान् वराह की त्वचा, उनकी आँखें तथा उनके शरीर के रोमकूपों का वर्णन यहाँ पर वेदों के विभिन्न अंगों के रूप में हुआ है। अतएव वे वैदिक मंत्रों के, विशेष रूप से गायत्रीमंत्र के, साक्षात् रूप हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥