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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  3.13.36 
स्रक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयो-
रिडोदरे चमसा: कर्णरन्ध्रे ।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते
यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
स्रक्—यज्ञ का पात्र; तुण्डे—जीभ पर; आसीत्—है; स्रुव:—यज्ञ का दूसरा पात्र; ईश—हे प्रभु; नासयो:—नथुनों का; इडा— खाने का पात्र; उदरे—पेट में; चमसा:—यज्ञ का अन्य पात्र, चम्मच; कर्ण-रन्ध्रे—कान के छेदों में; प्राशित्रम्—ब्रह्मा नामक पात्र; आस्ये—मुख में; ग्रसने—गले में; ग्रहा:—सोम पात्र; तु—लेकिन; ते—तुम्हारा; यत्—जो; चर्वणम्—चबाना; ते— तुम्हारा; भगवन्—हे प्रभु; अग्नि-होत्रम्—अपनी यज्ञ-अग्नि के माध्यम से तुम्हारा भोजन है ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, आपकी जीभ यज्ञ का पात्र (स्रक्) है, आपका नथुना यज्ञ का अन्य पात्र (स्रुवा) है। आपके उदर में यज्ञ का भोजन-पात्र (इडा) है और आपके कानों के छिद्रों में यज्ञ का अन्य पात्र (चमस) है। आपका मुख ब्रह्मा का यज्ञ पात्र (प्राशित्र) है, आपका गला यज्ञ पात्र है, जिसका नाम सोमपात्र है तथा आप जो भी चबाते हैं वह अग्निहोत्र कहलाता है।
 
तात्पर्य
 वेदवादियों का कहना है कि वेदों तथा वेदों में वर्णित यज्ञ अनुष्ठानों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उन्होंने हाल ही में अपने दल का यह नियम बनाया है कि प्रतिदिन यज्ञ किया जाय। वे थोड़ी सी आग जलाकर उसमें मनमाने ढंग से कुछ होम करते हैं, किन्तु वेदों में उल्लिखित यज्ञ विषयक विधि-विधानों का कड़ाई से पालन नहीं करते। ऐसा माना जाता है कि विधान के अनुसार यज्ञ के विभिन्न पात्रों की यथा स्रक्, स्रुवा, बर्हि, चातुर्होत्र, इडा, चमस, प्राशित्र, ग्रह तथा अग्निहोत्र की आवश्यकता होती है। जब तक इन कठिन नियमों का पालन नहीं किया जाता, यज्ञ के फल प्राप्त नहीं हो पाते। इस युग में यज्ञों को सही ढंग से सम्पन्न करने की एक तरह से कोई सुविधा ही नहीं है। अत: इस कलियुग में ऐसे यज्ञों के लिए एक बाध्य आदेश है—यह स्पष्ट निर्देश है कि मनुष्य केवल संकीर्तन यज्ञ करे, अन्य कुछ भी नहीं। भगवान् का अवतार यज्ञेश्वर है और जब तक भगवान् के अवतार के लिए आदर भाव न हो तब तक यज्ञ पूर्णरूपेण नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में, भगवान् की शरण-ग्रहण करना और उनकी सेवा करना समस्त यज्ञों का वास्तविक अनुष्ठान है जैसाकि यहाँ पर बताया गया है यज्ञ के विभिन्न पात्र भगवान् के अवतार के शरीर के विभिन्न भागों को बताने वाले हैं। श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में इसका स्पष्ट निर्देश है कि श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में भगवान् के अवतार को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य को संकीर्तन यज्ञ करना चाहिए। यज्ञ का फल पाने के लिए इसका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए।
 
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