भगवद्भक्ति के लिए योग्यता यह है कि भक्त को समस्त भौतिक कल्मषों तथा इच्छाओं से मुक्त होना चाहिए। यह मुक्तावस्था वैराग्य अर्थात् भौतिक इच्छाओं से विरक्ति कहलाती है। जो व्यक्ति विधिविधानों के अनुसार भक्ति में लगा रहता है, वह स्वत: भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है और उस शुद्ध मनोदशा में वह भगवान् की अनुभूति कर सकता है। प्रत्येक के हृदय में स्थित होने से भगवान् भक्त को शुद्धभक्ति के विषय में शिक्षा देते हैं जिससे वह अन्तत: भगवान् की संगति प्राप्त कर सके। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (१०.१०) में इस प्रकार हुई है— तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
“जो व्यक्ति श्रद्धा तथा प्रेम के साथ निरन्तर भगवान् की भक्ति में लगा रहता है उसे अन्त में भगवान् निश्चित रूप से अपने को प्राप्त करने के लिए बुद्धि प्रदान करते हैं।”
मनुष्य को मन जीतना होता है और वह ऐसा वैदिक अनुष्ठानों द्वारा तथा विभिन्न प्रकार के यज्ञ सम्पन्न करके कर सकता है। इन समस्त कार्यों का चरम अन्त भगवान् की भक्ति प्राप्त करना है। भक्ति के बिना भगवान् को नहीं समझा जा सकता। आदि भगवान् या उनके असंख्य विष्णु अंश ही समस्त वैदिक अनुष्ठानों तथा यज्ञों के द्वारा पूजा के एकमात्र लक्ष्य हैं।