श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.13.4 
श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य
नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थ: ।
तत्तद्गुणानुश्रवणं मुकुन्द-
पादारविन्द हृदयेषु येषाम् ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
श्रुतस्य—ऐसे व्यक्तियों का जो सुन रहे हों; पुंसाम्—ऐसे पुरुषों का; सुचिर—दीर्घकाल तक; श्रमस्य—कठिन श्रम करते हुए; ननु—निश्चय ही; अञ्जसा—विस्तार से; सूरिभि:—शुद्ध भक्तों द्वारा; ईडित:—व्याख्या किया गया:; अर्थ:—कथन; तत्—वह; तत्—वह; गुण—दिव्य गुण; अनुश्रवणम्—सोचते हुए; मुकुन्द—मुक्तिदाता भगवान् का; पाद-अरविन्दम्—चरणकमल; हृदयेषु—हृदय के भीतर; येषाम्—जिनके ।.
 
अनुवाद
 
 जो लोग अत्यन्त श्रमपूर्वक तथा दीर्घकाल तक गुरु से श्रवण करते हैं उन्हें शुद्धभक्तों के चरित्र तथा कार्यकलापों के विषय में शुद्धभक्तों के मुख से ही सुनना चाहिए। शुद्ध भक्त अपने हृदयों के भीतर सदैव उन भगवान् के चरणकमलों का चिन्तन करते हैं, जो अपने भक्तों को मोक्ष प्रदान करने वाले हैं।
 
तात्पर्य
 दिव्य छात्र वे हैं, जो प्रामाणिक गुरु से वेदों को सुन कर प्रशिक्षित बनने के लिए कठिन तपस्या करते हैं। उन्हें न केवल भगवान् के कार्यकलापों के बारे में सुनना चाहिए, अपितु उन भक्तों के भी दिव्य गुणों के विषय में सुनना चाहिए जो अपने हृदय के भीतर निरन्तर भगवान् के चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं। भगवान् के शुद्ध भक्त को क्षण भर के लिए भी भगवान् के चरणकमलों से विलग नहीं किया जा सकता। निस्सन्देह, भगवान् सदैव समस्त प्राणियों के हृदयों के भीतर रहते हैं, किन्तु वे इसके विषय में नहीं जान पाते, क्योंकि वे मोहिनी भौतिक शक्ति द्वारा ठगे जाते हैं। तथापि भक्त भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करते हैं इसलिए वे अपने हृदय के भीतर भगवान् के चरणकमलों का सदैव दर्शन कर सकते हैं। भगवान् के ऐसे शुद्ध भक्त भगवान् के ही तुल्य गौरवशाली होते हैं; वस्तुत: भगवान् उन्हें अपनी अपेक्षा अधिक पूजनीय मानने की संस्तुति करते हैं। भक्त की पूजा भगवान् की पूजा से अधिक शक्तिमान है। इसलिए दिव्य छात्रों का कर्तव्य है कि वे शुद्ध भक्तों के बारे में उसी रूप में सुनें जिस तरह भगवान् के वैसे ही भक्तों द्वारा बतलाया गया हो, क्योंकि कोई तब तक भगवान् या उनके भक्त के विषय में कुछ नहीं बतला सकता जब तक वह स्वयं शुद्ध भक्त न हो।
 
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