संस्थापय एनाम्—इस पृथ्वी को उठाओ; जगताम्—चर; स-तस्थुषाम्—तथा अचर दोनों; लोकाय—उनके निवास स्थान के लिए; पत्नीम्—पत्नी; असि—हो; मातरम्—माता; पिता—पिता; विधेम—हम अर्पित करते हैं; च—भी; अस्यै—माता को; नमसा—नमस्कार; सह—समेत; त्वया—तुम्हारे साथ; यस्याम्—जिसमें; स्व-तेज:—अपनी शक्ति द्वारा; अग्निम्—अग्नि; इव—सदृश; अरणौ—अरणि काष्ठ में; अधा:—निहित ।.
अनुवाद
हे प्रभु, यह पृथ्वी चर तथा अचर दोनों प्रकार के निवासियों के रहने के लिए आपकी पत्नी है और आप परम पिता हैं। हम उस माता पृथ्वी समेत आपको सादर नमस्कार करते हैं जिसमें आपने अपनी शक्ति स्थापित की है, जिस तरह कोई दक्ष यज्ञकर्ता अरणि काष्ठ में अग्नि स्थापित करता है।
तात्पर्य
तथाकथित गुरुत्वाकर्षण का नियम, जो लोकों को स्थिर रखता है, यहाँ पर उसे भगवान् की शक्ति बतलाया गया है। इस शक्ति को भगवान् ने उसी तरह स्थापित कर रखा है, जिस तरह दक्ष यज्ञकर्त्ता ब्राह्मण वैदिक मंत्रों की शक्ति से अरणि काष्ठ में अग्नि को स्थापित करता है। इस व्यवस्था से यह संसार चर तथा अचर प्राणियों के लिए रहने के योग्य बन जाता है। सारे बद्धजीव, जो कि इस भौतिक जगत के वासी हैं, माता पृथ्वी के गर्भ में उसी प्रकार स्थापित किये जाते हैं जिस तरह पिता द्वारा माता के गर्भ में शिशु का बीज स्थापित किया जाता है। पिता के रूप में भगवान् तथा माता के रूप में पृथ्वी की यह विचारधारा भगवद्गीता (१४.४) में विवेचित है। बद्धजीव उस जन्मभूमि के प्रति भक्तिभाव से पूरित रहते हैं जिसमें वे जन्म लेते हैं, किन्तु वे अपने पिता को जानते नहीं। माता सन्तान उत्पन्न करने के मामले में स्वतंत्र नहीं है। इसी तरह भौतिक प्रकृति तब तक जीवित प्राणियों को उत्पन्न नहीं कर सकती जब तक वह परम पिता परमेश्वर के सम्पर्क में न आये। श्रीमद्भागवत हमें परम पिता के साथ साथ माता को नमस्कार करने की शिक्षा देती है, क्योंकि पिता ही समस्त चराचर जीवों के धारण तथा पालन करने के लिए माता को समस्त शक्तियों से गर्भित करता है।
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