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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  3.13.45 
स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैषते
य: कर्मणां पारमपारकर्मण: ।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं
विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम् ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; वै—निश्चय ही; बत—हाय; भ्रष्ट-मति:—मतिभ्रष्ट, मूर्ख; तव—तुम्हारी; एषते—इच्छाएँ; य:—जो; कर्मणाम्— कर्मों का; पारम्—सीमा; अपार-कर्मण:—असीम कर्मों वाले का; यत्—जिससे; योग—योगशक्ति; माया—शक्ति; गुण— भौतिक प्रकृति के गुण; योग—योग शक्ति; मोहितम्—मोहग्रस्त; विश्वम्—ब्रह्माण्ड; समस्तम्—सम्पूर्ण; भगवन्—हे भगवान्; विधेहि—वर दें; शम्—सौभाग्य ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, आपके अद्भुत कार्यों की कोई सीमा नहीं है। जो भी व्यक्ति आपके कार्यों की सीमा जानना चाहता है, वह निश्चय ही मतिभ्रष्ट है। इस जगत में हर व्यक्ति प्रबल योगशक्तियों से बँधा हुआ है। कृपया इन बद्धजीवों को अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान करें।
 
तात्पर्य
 मनोधर्मी चिन्तक (ज्ञानी), जो असीम की सीमा जानना चाहते हैं निश्चय ही, मतिभ्रष्ट हैं। इनमें से हर एक भगवान् की बहिरंगा शक्तियों द्वारा पाशबद्ध है। उनके लिए सबसे अच्छी बात यह है कि वे भगवान् को अचिन्त्य जानकर उनकी शरण में जाँय, क्योंकि उन्हें इस तरह उनकी अहैतुकी कृपा प्राप्त हो सकती है। यह स्तुति उच्चतर लोकों अर्थात् जन, तप तथा सत्य लोकों के निवासियों द्वारा की गई जो मनुष्यों की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान तथा शक्तिशाली होते हैं।

यहाँ पर विश्वं समस्तम् अत्यन्त सार्थक है। लोक दो तरह के हैं—भौतिक तथा आध्यात्मिक। मुनिगण प्रार्थना करते हैं “दोनों लोक आपकी विभिन्न शक्तियों द्वारा मोहित हैं। जो लोग आध्यात्मिक जगत में हैं, वे अपने को तथा आपको भी भुलाकर आपकी प्रेमाभक्ति में लीन रहते हैं, जबकि भौतिक जगत के लोग इन्द्रियतृप्ति में डूबे रहते हैं, अतएव वे भी आपको भुला देते हैं। कोई भी आपको नहीं जान सकता, क्योंकि आप असीम हैं। सबसे उत्तम यही है कि व्यर्थ के मानसिक चिन्तन द्वारा आपको जानने का प्रयास ही न किया जाय प्रत्युत आप हम सबों को आशीर्वाद दें जिससे हम अहैतुकी भक्ति से आपकी पूजा कर सकें।”

 
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