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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 47
 
 
श्लोक  3.13.47 
स इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेन: प्रजापति: ।
रसाया लीलयोन्नीतामप्सु न्यस्य ययौ हरि: ॥ ४७ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; इत्थम्—इस तरह से; भगवान्—भगवान्; उर्वीम्—पृथ्वी को; विष्वक्सेन:—विष्णु का अन्य नाम; प्रजा-पति:— जीवों के स्वामी; रसाया:—जल के भीतर से; लीलया—आसानी से; उन्नीताम्—उठाया हुआ; अप्सु—जल में; न्यस्य—रखकर; ययौ—अपने धाम लौट गये; हरि:—भगवान् ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार से समस्त जीवों के पालनहार भगवान् विष्णु ने पृथ्वी को जल के भीतर से उठाया और उसे जल के ऊपर तैराते हुए रखकर वे अपने धाम को लौट गये।
 
तात्पर्य
 भगवान् विष्णु विशिष्ट प्रयोजनों के लिए अपने असंख्य अवतारों में अपनी इच्छा से भौतिक लोकों में अवतरित होते हैं और पुन: अपने धाम को चले जाते हैं। जब वे अवतरित होते हैं, तो वे अवतार कहलाते हैं, क्योंकि अवतार का अर्थ है “अवतरित होने वाला।” न तो स्वयं भगवान्, न ही उनके विशिष्ट भक्त जो इस पृथ्वी पर आते हैं, हम जैसे सामान्य जीव होते हैं।
 
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