तस्मिन्—उन; प्रसन्ने—प्रसन्न होने पर; सकल-आशिषाम्—सारे आशीर्वादों का; प्रभौ—भगवान् को; किम्—वह क्या है; दुर्लभम्—प्राप्त कर सकना अतीव कठिन; ताभि:—उनके साथ; अलम्—दूर; लव-आत्मभि:—क्षुद्र लाभ सहित; अनन्य- दृष्ट्या—अन्य कुछ से नहीं अपितु भक्ति से; भजताम्—भक्ति में लगे हुओं का; गुहा-आशय:—हृदय के भीतर निवास करने वाले; स्वयम्—स्वयं; विधत्ते—सम्पन्न करता है; स्व-गतिम्—अपने धाम में; पर:—परम; पराम्—दिव्य ।.
अनुवाद
जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता। दिव्य उपलब्धि के द्वारा मनुष्य अन्य प्रत्येक वस्तु को नगण्य मानता है। जो व्यक्ति दिव्य प्रेमाभक्ति में अपने को लगाता है, वह हर व्यक्ति के हृदय में स्थित भगवान् के द्वारा सर्वोच्च सिद्धावस्था तक ऊपर उठा दिया जाता है।
तात्पर्य
जैसाकि भगवद्गीता (१०.१०) में कहा गया है, भगवान् शुद्ध भक्तों को बुद्धि प्रदान करते हैं जिससे वे सर्वोच्च सिद्धि-अवस्था तक ऊपर उठाये जा सकें। यहाँ पर इस बात की पुष्टि की गई है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की प्रेमाभक्ति में निरन्तर लगे रहने वाले शुद्ध भक्त को वह समस्त ज्ञान प्रदान किया जाता है, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तक पहुँचने के लिए आवश्यक है। ऐसे भक्त के लिए भगवान् की सेवा के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त किया जाना मूल्यवान नहीं है। यदि कोई व्यक्ति श्रद्धापूर्वक सेवा करता है, तो निराशा की कोई सम्भावना नहीं रहती, क्योंकि भक्त की प्रगति का भार स्वयं भगवान् ले लेते हैं। भगवान् हर एक के हृदय में आसीन हैं और वे भक्त के मन्तव्य को जानते हैं तथा उपलब्ध हो सकने वाली हर वस्तु की व्यवस्था करते हैं। दूसरे शब्दों में, छद्म भक्त, जो कि भौतिक लाभ पाने के लिए उत्सुक रहता है सर्वोच्च सिद्धि-अवस्था इसलिए प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि भगवान् को उसके गन्तव्य की जानकारी रहती है। मनुष्य को अपने उद्देश्य में केवल निष्ठावान बनने की आवश्यकता है। फिर तो भगवान् सभी तरह से उसकी सहायता करने के लिए वहाँ पर मौजूद रहते हैं।
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