श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.13.5 
श्रीशुक उवाच
इति ब्रुवाणं विदुरं विनीतं
सहस्रशीर्ष्णश्चरणोपधानम् ।
प्रहृष्टरोमा भगवत्कथायां
प्रणीयमानो मुनिरभ्यचष्ट ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति—इस प्रकार; ब्रुवाणम्—बोलते हुए; विदुरम्—विदुर को; विनीतम्— अतीव नम्र; सहस्र-शीर्ष्ण:—भगवान् कृष्ण; चरण—चरणकमल; उपधानम्—तकिया; प्रहृष्ट-रोमा—आनन्द से जिसके रोम खड़े हो गये हों; भगवत्—भगवान् के सम्बन्ध में; कथायाम्—शब्दों में; प्रणीयमान:—ऐसे आत्मा द्वारा प्रभावित हो कर; मुनि:—मुनि ने; अभ्यचष्ट—बोलने का प्रयास किया ।.
 
अनुवाद
 
 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान् कृष्ण विदुर की गोद में अपना चरणकमल रख कर प्रसन्न थे, क्योंकि विदुर अत्यन्त विनीत तथा भद्र थे। मैत्रेय मुनि विदुर के शब्दों से अति प्रसन्न थे और अपनी आत्मा से प्रभावित होकर उन्होंने बोलने का प्रयास किया।
 
तात्पर्य
 यहाँ सहस्र-शीर्ष्ण: शब्द अत्यन्त सार्थक है। विविध शक्तियों तथा कार्यकलापों एवं अद्भुत मस्तिष्क वाला व्यक्ति सहस्र-शीर्ष्ण: कहलाता है। यह योग्यता एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण पर लागू होती है, अन्य किसी पर नहीं। भगवान् ने कभी प्रसन्न होकर विदुर के घर पर भोजन किया था और विश्राम करते समय उन्होंने विदुर की गोद में अपने चरणकमल रखे थे। मैत्रेय विदुर के अहो भाग्य को सोचकर प्रेरित हुए। उन्हें रोमांच हो गया और प्रसन्न होकर उन्होंने बड़े ही हर्ष के साथ भगवान् की कथाओं का वर्णन शुरू किया।
 
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