को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्
पुराकथानां भगवत्कथासुधाम् ।
आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहा-
महो विरज्येत विना नरेतरम् ॥ ५० ॥
शब्दार्थ
क:—कौन; नाम—निस्सन्देह; लोके—संसार में; पुरुष-अर्थ—जीवन-लक्ष्य; सार-वित्—सार को जानने वाला; पुरा- कथानाम्—सारे विगत इतिहासों में; भगवत्—भगवान् विषयक; कथा-सुधाम्—भगवान् विषयक कथाओं का अमृत; आपीय—पीकर; कर्ण-अञ्जलिभि:—कानों के द्वारा ग्रहण करके; भव-अपहाम्—सारे भौतिक तापों को नष्ट करने वाला; अहो—हाय; विरज्येत—मना कर सकता है; विना—बिना; नर-इतरम्—मनुष्येतर प्राणी ।.
अनुवाद
बेइन्ग्. मनुष्य के अतिरिक्त ऐसा प्राणी कौन है, जो इस जगत में विद्यमान हो और जीवन के चरम लक्ष्य के प्रति रुचि न रखता हो? भला कौन ऐसा है, जो भगवान् के कार्यों से सम्बन्धित उन कथाओं के अमृत से मुख मोड़ सके जो मनुष्य को समस्त भौतिक तापों से उबार सकती हैं?
तात्पर्य
भगवान् के कार्यों की कथा अमृत के सतत प्रवाह के तुल्य है। ऐसे अमृत को पीने से इनकार वही कर सकता है, जो मनुष्य नहीं है। हर मनुष्य के लिए भगवद्भक्ति जीव का सर्वोच्च लक्ष्य है और ऐसा भक्तियोग भगवान् के दिव्य कार्यों को श्रवण करने से शुरू होता है। केवल कोई पशु या ऐसा मनुष्य जो आचरण में पशुप्राय है, भगवान् का सन्देश सुनने में रुचि लेने से इनकार करेगा। संसार में कथाओं तथा इतिहासों के अनेक ग्रन्थ हैं, किन्तु भगवान् की कथाओं के इतिहासों या कथाओं को छोडक़र उनमें से कोई भी भवताप के भार को कम करने में समर्थ नहीं है। अतएव जो व्यक्ति भौतिक जीवन का निराकरण करना चाहता है उसे भगवान् के दिव्य कार्यों के विषय में कीर्तन तथा श्रवण करना चाहिए। अन्यथा उस मनुष्य की तुलना अमनुष्यों से की जानी चाहिए।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “वराह भगवान् का प्राकट्य” नामक तेरहवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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