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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 13: वराह भगवान् का प्राकट्य  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  3.13.9 
ब्रह्मोवाच
प्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति स्ताद्वां क्षितीश्वर ।
यन्निर्व्यलीकेन हृदा शाधि मेत्यात्मनार्पितम् ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
ब्रह्मा उवाच—ब्रह्मा ने कहा; प्रीत:—प्रसन्न; तुभ्यम्—तुम को; अहम्—मैं; तात—हे पुत्र; स्वस्ति—कल्याण; स्तात्—हो; वाम्—तुम दोनों को; क्षिति-ईश्वर—हे संसार के स्वामी; यत्—क्योंकि; निर्व्यलीकेन—बिना भेदभाव के; हृदा—हृदय से; शाधि—आदेश दीजिये; मा—मुझको; इति—इस प्रकार; आत्मना—आत्मा से; अर्पितम्—शरणागत ।.
 
अनुवाद
 
 ब्रह्माजी ने कहा, हे प्रिय पुत्र, हे जगत् के स्वामी, मैं तुम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हारे तथा तुम्हारी पत्नी दोनों ही के कल्याण की कामना करता हूँ। तुमने मेरे आदेशों के लिए अपने हृदय से बिना सोचे विचारे अपने आपको मेरे शरणागत कर लिया है।
 
तात्पर्य
 पिता तथा पुत्र का सम्बन्ध अतीव उदात्त होता है। पिता स्वभावत: पुत्र का शुभेच्छु होता है और अपने पुत्र के जीवन की प्रगति में सहायता करने के लिए सदैव उद्यत रहता है। किन्तु पिता की शुभेच्छा के बावजूद पुत्र कभी कभी निजी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके विपथ हो जाता है। हर जीव में चाहे वह कितना छोटा या बड़ा क्यों न हो, स्वतंत्रता की रुचि होती है। यदि पुत्र मुक्त भाव से पिता के मार्गदर्शन पर चलना चाहता है, तो पिता सभी तरह से उसे आदेश देने तथा उसका मार्गदर्शन करने के लिए दसगुना अधिक उत्सुक रहता है। यहाँ पर ब्रह्मा तथा मनु के व्यवहार में पिता-पुत्र का जो सम्बन्ध प्रदर्शित हो रहा है, वह सर्वोत्तम है। पिता तथा पुत्र दोनों ही सुयोग्य हैं और समस्त मानव जाति को उनके आदर्श का अनुसरण करना चाहिए। पुत्र मनु ने अपने पिता ब्रह्मा से मुक्तभाव से आदेश देने के लिए कहा और पिता जो वैदिक ज्ञान से पूर्ण थे, इसे देने के लिए अति प्रसन्न थे। मनुष्य को मानवजाति के पिता के इस उदाहरण का दृढ़ता से पालन करना चाहिए, क्योंकि इससे पिता तथा पुत्र के सम्बन्ध उन्नत बनेंगे।
 
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