सर्वाश्रमानुपादाय स्वाश्रमेण कलत्रवान् ।
व्यसनार्णवमत्येति जलयानैर्यथार्णवम् ॥ १८ ॥
शब्दार्थ
सर्व—समस्त; आश्रमान्—सामाजिक व्यवस्थाओं, आश्रमों को; उपादाय—पूर्ण करके; स्व—अपने; आश्रमेण—आश्रमों के द्वारा; कलत्र-वान्—अपनी पत्नी के साथ रहने वाला व्यक्ति; व्यसन-अर्णवम्—संसार रूपी भयावह सागर; अत्येति—पार कर सकता है; जल-यानै:—समुद्री जहाजों द्वारा; यथा—जिस तरह; अर्णवम्—समुद्र को ।.
अनुवाद
जिस तरह जहाजों के द्वारा समुद्र को पार किया जा सकता है उसी तरह मनुष्य पत्नी के साथ रहते हुए भवसागर की भयावह स्थिति से पार हो सकता है।
तात्पर्य
संसार से मोक्ष के प्रयास में सहयोग करने के लिए चार सामाजिक व्यवस्थाएँ अर्थात् आश्रम हैं। ये हैं—ब्रह्मचर्य या पवित्र छात्र जीवन, पत्नी के साथ गृहस्थ जीवन, वानप्रस्थ तथा संन्यास—सफल प्रगति के लिए ये सभी उस गृहस्थ पर निर्भर करते हैं, जो अपनी पत्नी के साथ रहता है। यह सहयोग जीवन की चार सामाजिक व्यवस्थाओं तथा चार आध्यात्मिक व्यवस्थाओं के सुचारु रूप से कार्य करते रहने के लिए अति आवश्यक है। यह वैदिक वर्णाश्रम प्रणाली सामान्यतया जाति प्रथा कहलाती है। अपनी पत्नी के साथ रहने वाले पुरुष की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है अन्य आश्रमों के सदस्यों—ब्रह्मचारियों, वानप्रस्थों तथा संन्यासियों—के भरणपोषण की। गृहस्थों को छोड़ कर अन्य सबों से आशा की जाती है कि वे जीवन की आध्यात्मिक प्रगति में लगे रहें, अतएव ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा संन्यासी को जीविका कमाने के लिए बहुत ही कम समय रहता है। इसलिए वे गृहस्थों से भिक्षा एकत्र करते हैं और इस तरह से जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन करते हैं। समाज के अन्य तीन वर्गों को आध्यात्मिक मूल्यों का अनुशीलन करने में सहायता करके गृहस्थ भी आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करता है। अन्ततोगत्वा समाज का हर सदस्य स्वत: आध्यात्मिक रूप से उन्नत बनता है और अविद्या के सागर को सहज ही पार कर जाता है।
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